गुरुवार, 24 जनवरी 2013

इलेक्ट्रोनिक  मीडिया  का बच्चो  पर प्रभाव 

आज  के आधुनिक  समाज में  इलेक्ट्रोनिक  मीडिया  आसानी से पूरी दुनिया हमारी मुट्ठी में कैद कर रही है ! हमारे बच्चे  भी  इसका भरपूर उपभोग कर रहे हैं ! स्कूल जाने वाले मासूम बच्चे और युवा  हिंसा , नशाखोरी ,आत्महत्या जैसे  अवसाद युक्त  समस्याओं   के भंवरजाल में फंसते जा रहे हैं ! आज का बच्चा तकनीकी और आधुनिक इलेक्ट्रोनिक उपकरण को इस्तेमाल करने में महारत हासिल कर रहा है ! समाजशास्त्रियों व् मनोवैज्ञानिको  के अनुसार आधुनिक जीवन शैली के कारण बढ़ता एकाकीपन संयुक्त परिवार का बिखरना और अभिभावकों के पास समय का आभाव  बच्चों को दिशा विहीन बनाता जा रहा है !

अभिभावक  अपने बच्चों  को घंटो टी .वी  और कम्पयूटर  के सामने बैठे रहने की अनुमति  देकर उन्हें कैंसर की ओर  धकेल रहे हैं ! बच्चों में मोटापे , हृदय  रोग , डायबटीज  जैसी बीमारियाँ बढ़ रही हैं ! साथ  में  उदासीन  जीवन शैली की  ओर  बढ़ता  रुझान  भी  दृष्टीगोचर  हो  रहा है ! निरंतर इन उपकरणों  के आगे बैठने से चर्बी से ग्रसित बच्चे कैंसर  विशेषकर चर्म  कैंसर के शिकार हो रहे हैं ! इस प्रतिस्पर्धा के युग में उचित माहौल न मिलने की वजह से बच्चों में आत्मविश्वास घटा है ! अभिभावक भी धनौपार्जन की दौड़ में अपने  बच्चो की मौलिक आवश्यकताओं  की बस खानापूर्ति  कर स्वय को जिम्मेदारी  से मुक्त समझने की भूल कर रहे हैं ! यही वजह है कि  बच्चों ने अपने को दूसरे  आधारों में  उलझाना आरम्भ कर दिया है ! 

जीवन में सफलता और सुख वही  व्यक्ति प्राप्त करता है जो निर्धारित लक्ष्य प्राप्त करने के लिए योजनाबद्ध  तरीके से कार्य करता है ! बच्चों को उनकी रुचियों  के अनुरूप स्वयं को ढालने देना चाहिए  तभी वे अपनी उर्जा का पूर्णरूप से सदुपयोग कर पायेगा और उसका लाभ उठा पायेगा ! उसे अपने आसपास की परिस्तिथियों को झेलने की क्षमता आनी चाहिए ! उन्हें उनके कर्तव्य बोध पर प्रेरित करने के लिए उनका रूझान  अच्छी पुस्तकें पढने की ओर  बढ़ाना चाहिए ! आज के आपाधापी और धन संग्रह की ओर  इतना आकर्षण  है कि  उस पर मानवीय  मूल्य  दाँव  पर लग गए हैं ! मानव जीवन  के प्रतिमान भी बदल रहे हैं जिसका घातक प्रभाव परिवार पर पड़ रहा है फलस्वरूप समाज प्रभावित होना भी सुनिश्चित है ! 

अभिभावक को बच्चों में संस्कारों  की नीव की सोच विलुप्त होती जा रही है ! बस बच्चों को छोटी उम्र से ही धनोर्पाजन का माध्यम  समझा जाने लगा है और नैतिक मूल्यों के स्थान पर फूहड़ संस्कृति को अपनाकर  अभिमानी हो रहे हैं !  संस्कार विहीन वातावरण में पले  बच्चों का रूझान  भी अनुशाशनहीनता  ,अकर्मण्य  और सुख सुविधाभोगी बनते जा रहे हैं ! संयुक्त परिवारों के विघटन से सीधा असर बच्चों में नैतिक मूल्यों की कमी के रूप में सामने आई ! पहले बड़े बूढों  की छत्र छाया में बच्चे हितोपदेश  कहानियों से नैतिक मुल्य स्वत : ही ग्रहण कर लेते थे और आपसी सम्बन्धों में मिठास झलकती थी किन्तु एकल परिवार में यह एक अभिशाप ही है कि  बच्चे का लगाव अपने माता  पिता से रहता है वह भी तब तक जब तक वह स्वय  कमाने  के काबिल नही होता बाद में जैसे उसे प्राप्त होता है वह वैसे  ही लौटा देता है ! हम अभिवाहक  अपने बच्चों को अपने महत्वकांक्षाओं की पूर्ती में उसकी नैतिक अवहेलना कर रहे हैं जिसके फलस्वरूप वे भी संस्कारों को मात्र स्कूली शिक्षा  का एक विषय समझकर नजर अंदाज कर देते हैं ! 

वर्तमान परिदृश्य  में अभिभावक अपने बच्चों की नित्य दिनचर्या  से चिंतित होते जा रहे हैं !  इसके लिए यह बहुत सोचनीय  हो गया है कि  बच्चों को अच्छे लक्ष्यों की ओर  कैसे  प्रेरित करें ! अभिभावक बच्चों के साथ कम्युनिकेशन  बनाकर रखें ! वे कभी किसी उलझन में न रहे ! कोई परेशानी पर उसे ह्तोसाहित  न  करें ! स्वय  को उसको कोसने के  बजाय  समाधान ढूँढने  का  पर्यास करें ! धैर्य से उसे उसकी गलतियाँ  दिखाएं और फिर उसका मार्गदर्शन करें ! उसके टी . वी . देखने का समय सुनिश्चित करें  और उसे कुछ खास ज्ञानवर्धक चैनलों  की ओर  प्रेरित करें ! उसको तनाव देने के बजाय  उसके  मन को  प्रफुलित  रखेंगे तो वह स्वय  घर परिवार की ओर  रूझान  बढेगा ! उनमें  किसी  प्रकार  के  नकारत्मक  भाव न पनपने दें ! वस्तुत : बच्चों के सामान्य व्यवहार से उनके व्यक्तित्व पर गहरा  असर पड़ता है जो अभिभावक और अन्य  पारिवारिक सदस्यों  की गतिविधि  के अनुरूप ढलती चली जाती है ! 

बच्चों को आधुनिक मीडिया  के  दुस्प्रभाव से बचाने  के लिए अभिभावकों की न केवल नैतिक जिम्मेदारी होती  है बल्कि  उन्हें स्वय अपने लिए भी मापदंड तय  करने होंगे ! बच्चों पर दबाब और उससे जुड़ने से मना करने से पहले समय सारिणी निश्चित किया जाना चाहिए ! उनकी महत्वपूर्ण गतिविधियों पर नज़र रखें , नियम बनाएं और उसे ईनाम  से जोडें ! अपने अभिमान की ज्वाला से उनके कोमल मन को ठेस न पहुंचाएं  , उन पर अपने कड़े नियम थोपने से बचें  ! इन्टरनेट , मोबाइल  और टी .वी  सबके सकरात्मक व् नकारात्मक प्रभाव होते हैं ! बच्चों के लिए  उचित और क्या अनुचित इसको अभिभावक ही सुनिश्चित कर सकते हैं ! उन्हें अध्यन  की ओर  इस सुविधा का इस्तेमाल सिखाएं ,जानकारी बढे किन्तु सही दिशा  की  ओर ! बच्चों को अच्छे क्रिया कलापों की ओर  प्रेरित करें ! उनके के साथ मैत्री भाव रखते हुए उनके साथ समय बिताएं ! उनके मन मस्तिष्क पर आप एक खौफ नहीं मित्र के रूप में दिखें ताकि वह बाहय  दुनिया की ओर  न मुड़े !

 आज जरुरत हैं नैतिक मूल्यधारा  का पुनर्निर्माण  ताकि हमारे  बाल गोपाल सुंदर ,स्वस्थ ,और चिंतनशील व्यक्तित्व वाले हो , जो खुशहाल भारत के निर्माता बनेंगे ! बच्चों को यह शिक्षा दी जानी चाहिए कि  सम्पूर्ण  रास्ट्र की बागडोर उस पर है ! श्रेष्ठ  विचार बच्चों के व्यक्तित्व निखारते हैं तो दूषित आचरण उनका पूरा जीवन नस्ट करता है !  शिक्षकों  की  भी  भूमिका है कि  वे अपने शिष्यों को पतन के मार्गी न बनाने दें ! उनको कुटिलता और शोषण करने की प्रवृति से बचाएँ !
 इसके अलावा सरकार  का भी दायित्व है कि वह कार्यक्रमों पर तीखी दृष्टी बनाये रखे कि  किस कार्यक्रम  की क्या सामग्री परोसी जा रही है ! जब परिवार के सदस्य  सीरिअल्स  को देखने में खुद को आधुनिक समझते हैं तो  फिर आप बच्चो पर अपने नियम कैसे थोप सकते हैं ! . जितने भी सास बहु से केन्द्रित सीरियल हैं उसमें समाजिक परिवेश   का विघटन स्पष्ठ  दिख रहा है ! आधुनिकता के नाम पर गलत चीज़ों को आसानी से उपलब्ध करवाने से बचना होगा ! इसके लिए सरकार  द्वारा कड़े नियम लागु करवाने की आवश्यकता है साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है की समाज का प्रत्येक जागरूक सदस्य अपनी भूमिका सही ढंग से निबाह रहा है या नहीं ! 
हम सभी को याद  रखना होगा कि " आदर्श, अनुशासन, मर्यादा, परिश्रम, ईमानदारी तथा उच्च मानवीय मूल्यों के बिना किसी का जीवन महान नहीं बन सकता है" ~ स्वामी विवेकानंद

बुधवार, 16 जनवरी 2013

देश का भविष्य : ख़ुशी 

आज की बढती  प्रतिस्पर्धा युग का विषाद बन रही है ,अवसाद ! जीवन के विभिन्न आयामों से जूझ रहे तकरीबन 80% लोग अवसाद से ग्रसित हैं ! सामजिक , राजनितिक  , आर्थिक व् व्यवसायिक क्षेत्र में तालमेल के आभाव में व्यक्ति की आंतरिक ख़ुशी प्रभावित  हुयी है ! इसका सीधे सीधे प्रभाव उसके परिवार विशेषकर बच्चों पर पड़ता  है ! चिडचिडापन , अध्याधिक चिंतनशील रहना , दब्बूपन अथवा झगडालू प्रवृति ने हंसी ख़ुशी के वातावरण  को दीमक  की तरह चाटना आरम्भ कर दिया है ! इसका प्रतिकूल असर सामाजिक परिपेक्ष में आज दिख रहा है जो भविष्य में विकराल रूप धारण कर लेगी ! आज हम जानने की चेष्ठा  करेंगे आखिर ख़ुशी क्या होती है और कहाँ से प्राप्त की जा सकती है !
 हर व्यक्ति  का अपने जीवन को देखने का नजरिया अलग होता है ! घुमकड़ी , विभिन्न स्वादों का लुफ्त लेना , अपने शौक पूरे करना ,, पुस्तकें पढना , विभिन्न कलाओं  से जुड़ना इत्यादि विभिन्न माध्यम दृष्टीगोचर  होते हैं ! दुनिया में बड़े पैमाने  में  मनोवैज्ञानी  ने खुशियों के पैमाने ढूँढने का प्रयास कर रहे हैं ! जिससे वे लोगों को अवसादों से बाहर ला सकें  ! ख़ुशी कोई खरीदने या बेचने वाली वास्तु नहीं है ! यह तो आंतरिक भावनात्मक दर्पण  है जो लोगों में भिन्नता लिए हुए होती है !जिसमें धन , व्यवसायिक सुरक्षा , सामजिक सुरक्षा , सच्ची मित्रताएं , घरेलु सुरक्षा एवं सुरक्षित भविष्य शामिल हैं ! 

प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तु ने कहा था कि  ख़ुशी जीवन का अर्थ और उद्देश्य  दोनों हैं ! उनके अनुसार लोग भौतिक  सुखो में ख़ुशी के आयाम ढूँढने में मग्न  रहते हैं ! किन्तु मंजिल हासिल होने के बाद भी खुश नहीं दिखते  और जब निराशाएं घेरने लगती हैं तो अपने आपको दोषी मानते हुए कुंठाओं से ग्रसित कर  लेते हैं ! फिर आरम्भ होता है डाक्टरों  के यहाँ चक्कर काटने का अंतहीन सिलसिला या फिर किसी आध्यात्मिक गुरुओं की तलाश ! अपने व्यक्तिगत जीवन को आंतरिक व् बाह्य आवश्यकताओं के आपूर्ति के आभाव में अवसादित जीवन जीते हैं ! 

महात्मा बुद्ध  के अनुसार जिस तरह  एक मोमबती से हजारों मोमबतियां जलाई जासकती हैं  और उस मोमबती की उम्र कम नहीं होती इसी प्रकार ख़ुशी भी बांटने से कम नहीं होती ! यदि हम ऐसी सीख को जीवन में अपनाएं तो यकीनन हमारी ऐसी उन्नति होती  चली जाएगी कि  हम ख़ुशी के ऊँचे  शिखर पर पहुँच जायेंगे ! संसार  के प्रलोभन हमे भटकाते हैं किन्तु अपने भविष्य निर्माण  की दिशा में हमे  अपने आध्यात्मिक  विकास की ओर  भी चिंतनशील रहना चाहिए ! मन  हमारा तभी प्रसन्न  रह पायेगा जब हम जीवन की विषम परिस्तिथि से न घबराएं अपितु उन्हें आत्मसात करते चले जाएँ !

अपनी निंदा स्तुति , हानि लाभ , मान अपमान , यश अपयश  की परिस्तिथियों में समान व् आशावादी  बने रहना चाहिए ! भौतिक आनन्द के स्थान पर आत्मिक आनन्द की ओर अग्रसर  रहना चाहिए !सत्स्न्गीत , सत्साहित्य  सत्संग और समभाव ही हमे ख़ुशी देता है ! मिलनसार , सहनशील , संवेदनशील व्यक्ति हर परिस्तिथियों में अपने  को खुश रखने में सक्षम रहता है ! सत्कर्म ,सतविचार  व् अछे मित्र  को जीवन की आधारशिला बनानी चाहिए ! सच्चे लग्न से किया गया कार्य ही सच्ची ख़ुशी देता है ! ह्रदय की पवित्रता , मृदु वाणी  मनुष्य को प्रसन्नचित  रखती है और उसका कल्याण करती है !

अभिभावक जब माता पिता का दायित्व निबाहते हैं तो सर्वप्रथम अपने बच्चे के सर्वांगीण  विकास हेतु उसके अंतर्मन  के प्रत्येक पहलूओं  का उन्हें ज्ञान रखना चाहिए !उनकी जिन्दगी को बेहतरीन दिशा देने के लिए उनमें अच्छे संस्कार भरकर उनके चरित्र का निर्माण करेंगे तो घर परिवार ,समाज  में खुशियों  की भार आएगी ! बच्चे देश के अमूल्य निधि हैं ! इन्हें सुसंस्कृत बनाने की नैतिक  जिम्मेदारी अभिभावक व् शिक्षकों पर होता है ! उन्हें अकेलेपन से बचाना चाहिए ! उनकी गतिविधियों पर नजर रखे ! भटकाव की स्तिथि में  दण्डित करने के पैमाने से बचकर व्यवहारिकता से समस्यायों को सुलझाएं  ! 16 वर्ष की उम्र  के बाद बच्चों के मस्तिष्क  की गतिविधियाँ स्वयं को परिपक्वता की दिशा देने लगती है यही समय है जिसमें बच्चे दिशाविहीन होकर विभिन्न  प्रकार  नशे के शिकार होने लगते हैं ! नासमझी में ये गलत दिशा में खुशियाँ तलाशने लगते  हैं!

खुशियों को इच्छाओं का प्रतिबिम्ब माना जाता है ! जैसे जैसे आपकी इच्छाएं पूर्ण होती जाती हैं वैसे वैसे आपको ख़ुशी मिलती जाती हैं ! ख़ुशी के मायने व्यक्ति के चिंतनशैली पर निर्भर करती है जो प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न होती है ! ख़ुशी यदि सकारात्मक है तो बच्चे के विकास में बढ़ोतरी करती है अन्यथा पतन का कारक भी बनती है ! ख़ुशी ऐसी भावना जो मन के सारे अवसादों को हल्का कर  देती है और होठों  पर मुस्कान ले आती है ! हर व्यक्ति के खुशियों के मायनों में उपभोग की वस्तुएं , शौकिए  कार्य , पारिवारिक समारोह , अपनी उपलब्धियां  और आध्यात्म  शामिल होते जिसमें परिस्तिथि के अनुसार इनके प्रतिशत घटे बढ़ते रहते हैं ! 

 छोटे बच्चे सरल होते हैं , इनकी खुशियाँ इनके आत्मसम्मान पर टिकी  होती हैं ! कोमल हृदय  के कारण  इनका आत्मबल शीघ्र  क्षीण होने लगता है इसीलिए अभिभावकों को अपने बच्चो से धैर्य  से काम लेना चाहिए ,अधिक अनुशाशन युक्त दबाब बच्चो के मनोबल का हनन करते हैं जिसका प्रतिरूप अभिभावक उनके युवा अवस्था में सभी भुगतते हैं क्यूंकि शनै शनै  बाल कोमल मन अवसादित होकर भविष्य में अनैतिक क्रियाओं में क्रियाशील होता चला जाता हैं ,फिर उन्हें उनसे छीनी  गयी खुशियाँ लौटना नामुमकिन होता चला जाता है !  समाज में बढ़ते  अपराध का मुख्य कारण  यह भी है !  आज संस्कार से निमित समाज की अत्यंत आवश्यकता है ! इसमें प्रत्येक  व्यस्क को  समाज निर्माण के प्रति  नैतिक जिम्मेदारी निबाहनी होगी तभी हर ह्रदय में खुशियों की  बहार दिखेगी !

शुक्रवार, 11 जनवरी 2013



माँ में भेद न कर प्राणी

2, September 2012

MOTHER ONLY
माँ कौन है ...? केवल नौ दुर्गे जो आपकी यादों में नवरात्रों में चली आती हैं ! माँ के नौ रूप जो  हम सभी के दृष्टीकोण में सैदेव रहने चाहिए ! धरती ,अन्नपूर्णा , गौ , गंगा ,दुर्गा ,जन्मदायित्री, कर्मदयित्री , व् बूढी काया !

प्रत्येक घर -घर  में देवी के नौ स्वरूपों की विधि विधान से पूज कर व्यक्ति अपने आपको महान देवी का उपासक मानने लगता है ! इन नौ दिनों में व्यक्ति के व्यक्तित्व में एक अलग निखार दिखने को मिलता है ! वर्ष में दो बार आने वाले इन नवरात्रों  की धूम गली -गली, नगर -नगर  देखने को मिलती हैं !इस समय तो कन्याओं की घर -घर  में तलाश होती है और फिर झूठ , आडम्बर और भगती  के परचम लहराने में प्रत्येक  घर आगे रहता है ! विडम्बना यह की जिस नारी के नौ स्वरूपों का जीवन भर तिरस्कार किया जाता है वे इन नौ दिनों में इतनी पूजनीय क्यों हो जाती है ?
आप सभी के दृष्टीकोण में शायद देवी के नौ स्वरुप धार्मिक महत्व के होंगे किन्तु मेरे लिए माँ के नौ स्वरुप हैं -दुर्गा माँ , धरती माँ ,अन्नपूर्णा माँ , गंगा माँ ,गौ माँ , जन्मदायत्री  ,कर्मदायित्री अर्थात शिक्षिका ,गुरु माँ अर्थात टेरेसा माँ जैसी समाज सेविका ,और सर्वोपरि बुढ़ापे की दहलीज  पर खड़ी बूढी माँ सबसे गूढ़ ज्ञानि ! यदि हमारा जीवन इनके लिए पूर्णतया समर्पित हो जाये तो असल में हम सभी के व्रत सफल हो जायेंगे ! व्रत का परम  ध्येय अपनी आत्मा की शुद्धी कर उसे परमात्मा में लीं करना किन्तु हम जाते हैं तीर्थाघटन पर ..किन्तु किसलिए ? दुर्गा माँ के भक्तो की संख्या में इजाफा तो हो रहा है तो क्या पापियों की संख्या घट रही है?

सर्वप्रथम दुर्गा माँ , इसके विषय  में तो सारा जगत जानता है और  उसकी मौजूदगी का अहसास हम सभी के भीतर विद्यमान है !हर कार्य के प्रारंभ में विशेषकर विद्यार्थी या शिक्षण  क्षेत्र  में माँ दुर्गा की स्तुति  का महत्वपूर्ण स्थान है !
वह जीवन वही अर्पण है  और हम सभी शक्ति भी ,प्रेरणा भी ! किन्तु माँ ने कभी नहीं सिखाया की हम अपने स्वार्थ के खातिर जीव हत्या करो ,कन्या का तिरस्कार करो या फिर कन्या  भ्रूण हत्या को बढ़ावा दो !
दुसरे स्थान पर हैं  धरती माँ जिसमे हमने जन्म लिया और पले बढे उसके प्रति हमारी नैतिक जिम्मेंदारी की शिक्षा कौन देगा ? प्राकृतिक संसाधनों का हनन कर उसके संतुलन को बिगाड कर शायद हम धरती माँ के प्रति  अपना फ़र्ज़ भूल चुके हैं !धरती  के प्रति प्रेम भाव पुन जागृत करना अत्यंत जरुरी है ,नहीं तो ध्यान रखना होगा उसके कोप का भाजन बनना होगा ! इस माँ  ने अपने प्रयासों से अनेको उपभोग की वस्तुएं हमे प्रदान की हैं ,देखो इसके आँचल मैं ममता रूपी कितनी संजीवनिया छुपी हैं ,सूखे की स्तिथि हो या बाड की देखो धरती फिर भी हमारा दुःख समझती है ! इस माँ के उपकार को हमे न कभी भूलना चाहिए !
तीसरे स्थान पर अन्नपूर्णा माँ ! भोजन के प्रति अभिरुचि व् प्रेम तो शायद तो शायद युवा पीढ़ी भूल चुकी है ! विदेशी भोजन के प्रति अभिरुचि में प्रेम व् संस्कार की कमी तो है ही अपितु अनगिनत  बिमारियों की जन्मदाय्त्री  भी !और उसी भोजन को अपनाकर  हम अपनी रसोई को नैतिकहीन बनाते जा रहे हैं !जैसे खाएं अन्न वेसे होए मन ..ये तो हम सभी जानते हैं !चूल्हे की पूजा ,अग्नि को भोग लगाना ,तत्पश्चात  स्वयं सात्विक भोजन ग्रहण करना ,तो अब रुढ़िवादी  परम्पराओं  में आँका जाना  आज की शान व् पहचान हैं !जब  आप हम अपनी अन्नपूर्णा माँ का सम्मान नहीं करेंगे ! थाली में परोसा गया भोजन का सम्मान नहीं करेंगे  तो बच्चो को अच्छे संस्कार कहाँ से प्राप्त होंगे !
चतुर्थ स्थान पर आती है गौ माँ ,जिनके प्रत्येक  अंग में ब्रह्मांड समाया है किन्तु उसकी पूजा तो दूर ,सड़क पर उसको जख्मी पड़ा देख किसी का कलेजा नहीं पसीजता  तो उसकी उपासना तो मील का पत्थर है ! धन्य हैं वो लोग जो गौ की पूजा अपना धर्म समझते हैं !
पंचम स्थान पर हैं गंगा माँ  जो सदियों से हमारे कर्मो का भार सहन करके फिर  भी निर्मल बन हमे ढेरों आशीष  देती हैं ! देश की इस अमृतधारा  को हमने अपने स्वार्थ के चलते इतना प्रताड़ित किया है की आज वह अपना मार्ग बदलने पर विवश  है ! माँ करुणामयी तो होती है किन्तु जब उसका क्रोध जगता है तो संसार को उसका परिणाम तो भुगतना पड़ेगा !हिम ग्लेश्यर में  बढ़ते कूड़े के अनुपात ,हमारे द्वारा किया जा रहा जल प्रदूषण सब हमारी इस पावन धारा  पर भारी पड़ रही है !
छठे स्थान  पर अपने जनम देने वाली माँ हैं जो हमे इस संसार में लायी ,उसका मान रखना और उसके अभिमान की रक्षा करना हमारा दायित्व  है किन्तु विडंबना देखिये ,आज युवा माँ को माँ कहने में अपमानित महसूस करते हैं ! उन्हें तो मम्मी  शब्द इतना प्यारा लगता है की वे तो उसे जीते जी कब्र में पहुंचा देते हैं !
सातवें  स्थान पर कर्मदायिनी अर्थान शिक्षित करने वाली  जो  माँ /पिता तुल्य स्थान पर होती है  !विद्यालय  से विश्व विद्यालय  तक शिक्षिका  का स्थान भी देव तुल्य होता है !और हमे अपने आचरण से उनके मार्ग में खुशियाँ प्रवाहित करना चाहिए !युवा पीढ़ी चरण  स्पर्श करने में अपमानित महसूस करती है ! उन्हें यह ज्ञात नही की शिक्षक के चरणों में साक्षात् सरस्वती माँ विराजमान है !
आठवें स्थान पर सत्संग की और प्रेरित करने वाली वह साध्वी जिसका जीवन समाज कल्याण हेतु समर्पित होता है  जिस तरह माँ  टरेसा / उन जैसे अनेको जिनकी संगती  करने से हमारे आचरण में सुधार तो आता है साथ ही समाज के प्रति हमारे दायत्व की ओर हमे प्रेरित करती है ! हमे अपने अपने तरीके से  अपने को सत्संग की ओर  प्रेरित करना चाहिय !
नवे  स्थान पर मेरे दृष्टी मैं आपके हमारे घर  मैं वह बुजुर्ग जिन्हें हमारे  द्वारा सर्वाधिक पूजनीय होनी चाहिय क्योंकि जर्जरावस्था  में यह ज्योतिर्पुंज  है और उसका सम्मान हमारा मान होना चाहिय ! किन्तु वास्तविकता यह है की उन्हें हम अपने स्वार्थ  व्  उपयोगिता की दृष्टी से देखते हैं ! यदि हमे अपने उपर जिम्मेदारी सी दिखती है तो हम उन्हें प्रताड़ित करने से नहीं चूकते !उसकी जीवन संध्या हमारी  लिय  बोझ क्यूँ बन जाती है ,जब उसने  सारी उम्र हमारी भलाई में न जाने कितने आंसू पिए होंगे ....क्या फिर से मरण तक आंसू  बहाने के लिए !
मेरे दृष्टीकोण  में आपके जीवन की नौ  देवियाँ आपके अपने सामने हैं !इनका तिरस्कार कर मन्दिरों में घंटो और नगाडो  को बजाकर कोई लाभ न होगा ! नवरात्रों नही, नव देवियों का अभियान छेडिये -घर घर ,नगर -२  ,पूरे देश में ! यदि यह संभव हो गया तो माँ दुर्गा के नौ स्वरुप आपको  हर्षित  कर देंगे!  ! आयें प्रकृति के साथ चलें ,उसके अपने बनकर !!

बुधवार, 9 जनवरी 2013



 विद्यार्थियों में आत्महत्या का बढ़ता प्रचलन

प्रसिद्ध चिंतक अरस्तु ने कहा था कि आप मुझे सौ अच्छी माताएं दें तो मैं तुम्हे एक अच्छा रास्ट्र दूंगा ! माँ के हाथो में राष्ट्र निर्माण की कुंजी होती है किन्तु आज ऐसी माताओं व् सोच की कमी सी महसूस हो रही है ! जीवन स्तर बढने के साथ -साथ , भौतिक प्रतिस्पर्धा भी अपने चरम पर है जिसका दुस्प्रभाव तनाव युक्त जीवनशैली से आत्महत्या का बढ़ता चलन देखने में आ रहा है ! आज के समाज में आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम एक अभिशाप बन गया है ! बड़े दुःख का विषय है कि आज विद्यार्थीयों में लग्न व् मेहनत से विद्या ग्रहण करने की प्रवृति लुप्त होती जा रही है वे जीवन के हर क्षेत्र में शार्टकट मार्ग अपनाना चाहते हैं और असफल रहने पर आत्महत्या जैसे दुस्साहसी कदम उठा लेते है !आजकल अभिभावक भी स्वयं बच्चों पर पढाई और करिएर का अनावश्यक दबाब बनाते हैं ! वे ये समझना ही नहीं चाहते कि प्रत्येक बच्चे की बौद्धिक क्षमता भिन्न होती है और जिसके चलते हर छात्र कक्षा में प्रथम नहीं आ सकता ! बाल्यकाल से ही बच्चो को यह शिक्षा दी जानी चाहिए कि असफलता ही सफलता की सबसे बड़ी कूंजी है ! यदि बच्चा किसी वजह से असफल होता है तो वह पारिवारिक एवं सामाजिक उल्हाना के भय से आत्महत्या को सुलभ मान लेता है ! जिसके बाद वे अपने परिवार और समाज पर प्रश्नचिन्ह लगा जाते हैं !बच्चों में आत्मविश्वास की कमी भी एक बहुत बड़ा कारक है !

आज खुशहाली के मायने बदल रहे हैं अभिभावक अपने बच्चों को हर क्षेत्र में अव्वल देखने व् समाजिक दिखावे के चलते उन्हें मार्ग से भटका रहे हैं ! एक प्रतिशत के लिए यह मान लिया जाये कि वे बच्चे कुंठा ग्रस्त होते हैं जिन परिवारों में शिक्षा का आभाव होता है किन्तु वास्तविकता यह है की गरीब बच्चे फिर भी संघर्षपूर्ण जीवन में मेहनत व् हौसले के बलबूते अपनी मंजिल पा ही लेते हैं ! किन्तु अक्सर धन वैभव से भरे घरों में अधिक तनाव का माहौल होता है और एक दूसरे से अधिक अपेक्षाएं रखी जाती हैं ! साधन सम्पन्न होने के बाबजूद युवा पीढ़ी में आत्महत्या के आंकड़े बढ़ते जा रहे हैं !

मनोचिकित्सक का मानना है कि खुदखुशी कोई मानसिक बीमारी नहीं बल्कि मानसिक तनाव व् दबाब का प्रभाव होता है !असंतोष इसका मुख्य कारण है ! कुछ वर्षों से दस से बाईस वर्ष के बच्चे आत्महत्या को अपना रहे हैं ! परीक्षाओं का दबाब ,सहपाठियों द्वारा अपमान का भय , अध्यापकगण की लताड़ या व्यंग न बर्दास्त करने की क्षमता उन्हें इस मार्ग की ओर धकेल रहा है ! शहरों की भागदौड़ भरी जिन्दगी में बच्चे वक़्त से पहले परिपक्व हो रहे हैं जिसके फलस्वरूप वे अपने निर्णय स्वयं लेना चाहते हैं और अपने द्वारा लिए गए निर्णयों के अनुसार आशातीत परिणाम प्राप्त न होने पर आत्महत्या का निर्णय ले लेते हैं ! यही नहीं माता पिता की आकांक्षाओ की पूर्ति का दबाब वे अपनी जिन्दगी पर न सह पाने की वजह और सही निर्णय न लेने की स्तिथि में उन्हें यह मार्ग सुगम दिखता है !

आज के सन्दर्भ में दोष उन अभिवाहकों का है जो अपने बच्चों की प्रदर्शनी लगाना चाहते हैं मानो वह भी आज की उपभोगतावादी संस्कृति के चलते एक वस्तु हो और उन्हें जीवन के हर क्षेत्र के लिए अधिक से अधिक मूल्यवान बनाया जा सके यही कारण है की आज परिवार अपने मौलिक स्वरुप से भटक कर आधुनिकता की बलिवेदी पर होम हो रहे हैं ! भावनाओं व् संवेदनाओं से शून्य होते पारिवारिक रिश्ते कलुषित समाज की रचना कर रहे हैं !अभिभावकों को समझना होगा की बच्चे मशीन या रोबर्ट नहीं हैं ! बच्चों को बचपन से अच्छे संस्कार दिए जाने चाहिए ताकि वे अपनी मंजिल पर अपनी खुद चुने किन्तु आत्मविश्वास न खोएं ! बच्चों को सहनशील , धैर्यवान , निर्भिक , निर्मल , निश्चल बनाना है तो स्वत : अपने स्वभाव परिवर्तित करें ! बाल सुलभ मन में चरित्र का प्रभाव पड़ता है ! शिक्षा का नहीं आचरण की सभ्यता बाल सुलभ मन पर अधिक प्रभाव पढ़ता है ! शिक्षा का अंतिम लक्ष्य सुंदर चरित्र है ! मनुष्य के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का पूर्ण और संतुलित विकास करता है ! इसके अंतर्गत बच्चों में पाँचों मानवीय मूल्यों अर्थात सत्य , प्रेम , धर्म ,अहिंसा और शांति का विकास होता है !आज की शिक्षा बच्चों को कुशल विद्वान् एवं कुशल डॉक्टर , इंजीनियर या अफसर तो बना देती है परन्तु यह वः अच्छा चरित्रवान इंसान बने यह उसके संस्कारों पर निर्भर करता है ! एक पक्षी को ऊँची उड़ान भरने के लिए दो सशक्त पंखो की आवश्यकता होती है उसी प्रकार मनुष्य को भी जीवन के उच्च लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दोनों प्रकार की शिक्षा अपने बच्चों को अवश्य दें ! सांसारिक शिक्षा उसे जीविका और आध्यात्मिक शिक्षा उसके जीवन को मूल्यवान बनाएगी !

बच्चों को  श्री हरिवश राय बच्चन जी की कविता के अंश जरुर पढ़ने चाहिए

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

बच्चों की भी ध्यान रखना होगा की जिन्दगी बहुत कीमती है और वे जिस समाज में रहते हैं उसके प्रति उनकी भी नैतिक जिम्मेदारी हैं जिसका निर्वाहन करना उनका फ़र्ज़ है ! वे जिस समाज में रहते हैं , उसका सम्मान करें क्यूंकि उस समाज ने उनके लिए बहुत कुछ किया है और सामाजिक प्राणी होने के नाते आप अपनी जिम्मेदारी निभाए बिना कैसे इस दुनिया से चले जाना चाहते हैं ? सिर्फ इसलिए कि कि आप चुनौतियों से घबरा गए हैं ! खेद इस बात का नहीं होना चाहिए की आप असफल हुए हैं बल्कि आप की वजह से आपके माता पिता का समय ,धन व् सम्मान को ठेस पहुंची ! जीवन को चुनौती समझकर दृढ़ता से उस पर आने वाली चुनौती का डट कर सामना करें और अपनी गलतियों का अवलोकन कर इस द्रढ़ता से परीक्षा की तैयारी करें और कठिनाई के समय अपने शिक्षक ,अभिभावक को अपना मित्र समझ अपनी परेशानी उन्हें बताएं और स्वयं  पर हीनता के भाव कदापि न आने दें ! आत्मविश्वासी  बच्चे  उज्ज्वल भारत निर्माण  का संचार अब घर घर में हो !

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 नैतिक शिक्षा 
राष्ट्र   निर्माण  की  सच्ची  आधारशिला  यह  है  कि  नैतिक  व् धार्मिक वातावरण उत्पन्न किया जाये ! बाल्यकाल से ही घर , परिवार , विद्यालय  , कॉलेज  व् समाज में संस्कारों का प्रसार करना चाहिए ! व्यक्तिगत था समाजिक जीवन में सुसंस्कृत विचारधारा  एवं सुव्यवस्तिथ  कार्य प्रणाली  का होना आवश्यक है !यदि हमारी युवा पीढ़ी सिद्धांतों  के प्रति आस्थावान व् सजग नहीं है तो  समझ लेना चाहिए कि  उनमें  संस्कारों  की  दीक्षा  का आभाव  रहा है ! अच्छी  पुस्तकें सहानुभूति में मित्र  शिक्षण  में गुरु और सम्पूर्ण जीवन  में नेक  राह चलने की प्रेरणा देने वाले परमात्मा की तरह होती है ! जीवन में प्रत्येक  वस्तुओं पर सभी का ध्यान केन्द्रित रहता है किन्तु नैतिक ज्ञान को अनदेखा किया जाता है  जो चरित्र  निर्माता होती है ! सत्साहित्य से जो प्रेरणाएं मिलती है उसका प्रभाव  व्यक्ति के चिन्तन  व् चरित्र पर पड़ता है और उसकी प्रतिक्रिया   निश्चिंत  रूप  से  दृष्टीकोण  के परिष्कार एवं समुन्नत  जीवन  क्रम  के रूप  सामने आती है ! नैतिक शिक्षा को संजीवनी  विद्या  भी  कह  सकते हैं  जो खून को सदैव  दूषित अणो  से दूर  रखती  हैं !
आज के वर्तमान परिस्तिथि को देखते हुए , हमे  बच्चों  के  विकास  हेतु  प्रयत्नशील  बनना पडेगा ! संस्कार का मूल विद्यालय  वैसे तो घर ही है जिसमें अभिवावक  का महत्वपूर्ण योगदान होता है ! उसके पश्चात  विद्यालय  शिक्षा  में  नैतिक  मूल्यों  का पाठ्यक्रम  में शामिल होना अनिवार्य है ! किन्तु यह भी सत्य है कि  नैतिक शिक्षा  को चरणों  में बाँधकर  यदि बच्चे को सुस्कृत  बना लिया जाये तो आज की हिंसा की मनोवृति से कदाचित वह दूर रह पायेगा ! हम लोग  अक्सर बच्चों  की पढाई में संस्कारों को केवल  प्राथमिक  कक्षा तक  केन्द्रित  कर  देते हैं जबकि यह जीवनपर्यंत  प्राप्त होती रहनी चाहिए !  विशेषत: बच्चों  के मानसिक विकास यूँ तो 2-12 वर्ष में   बन जाता है ,किन्तु इस समय तक   वह स्वयं को  सामाजिक  परिवेश  की विभिन्न  कसौटियों  को परखने  में अक्षम रहता है ! इसीलिए मनोवैज्ञानिकों  का मानना है की नैतिक शिक्षा की मुख्य भूमिका 13 वर्ष से 19 वर्ष की आयु तक प्रभावी रूप से शिक्षण  संस्थाओं  द्वारा अनिवार्य किया जाना चाहिए ! सभी अभिभावकों व् शिक्षकों का मुख्य कार्य बच्चों के चेतन व् अवचेतन मन  का विकास होना चाहिए !
मनोवैज्ञानिकों  का मत है कि मन को अध्यात्म  से जोड़कर काफी हद तक संतुलित किया जा सकता है जो कि  मनुष्य को प्रत्येक क्षण उसके कार्यों के प्रति सजग रखता है ! यह बच्चों व् बड़ो की आदतों को नियंत्रित करता है! जिससे वे समय व् परिस्तिथि  के अनुसार कार्य व् निर्णय  लेने में सक्षम  रहते हैं !  अच्छे  चरित्रों  की उपलब्ध  कथाओं के माध्यम से व् प्रयोगात्मक शैली से बच्चों  के अंदर  नैतिक मूल्यों  का विकास  करना चाहिए !यही उसके चरित्र का निर्माता भी है ! 
आज का कट्टू  सत्य है की बच्चे दिन ब  दिन हिंसा ,झडप व्  बैचनी  से भरे माहौल में बड़े हो रहे हैं ! जिसमें  बेईमानी  की पराकाष्ठा बढ़ी है ! चरित्र  निर्माण  एक  जटिल प्रक्रिया है ! हम सभी मिलकर  विपरीत परिस्तिथियों   को बदलेंगे  और बदलकर ही रखेंगे ऐसा सभी को वचनबद्ध होना पड़ेगा !  उत्कृष्टता  और आदर्शवादिता  की किरणे  हर अंत :कर्ण तक पहुँचायेंगे ! इन नैतिक मूल्यों से बचपन  को  निखारते रहना होगा  जिससे उनके भविष्य को  मजबूत दिशा मिल सकेगी ! इन में प्रमुख हैं !1. . एक  दूसरे  के प्रति  प्रेम  व्  सहानुभूति  2 .ईमानदारी  3  मेहनत 4. एक दूसरों  के लिए आदर भाव ,5 आपसी सहयोग की प्रबल भावना 6.समरसता की भावना 7 .क्षमा  8  भेदभाव से अछूता संसार 10. एकता  की उन्नत भावना ! प्रत्येक बच्चे को  महान आदर्शों  के अनुरूप  ढालने  और सभी को प्रेरित करते रहना के प्रयास को मुख्य धारा से जोड़ना  मुख्य ध्येय  बने ! ज्ञानयज्ञ की चिंगारी भारत के कोने कोने पहुँचाने का बीड़ा उठाना होगा !
नैतिक शिक्षा प्राईमरी या माध्यमिक  तक ही सीमित रखा गया है ! 12 वर्ष तक माँ , 19 वर्ष तक पिता व् शिक्षक और उसके पश्चात  समाज का एक व्यक्ति के चरित्र निर्माण  का दायित्व होता है ! और यही विडंबना  है कि  विद्यालयों  में आठवी कक्षा के बाद नैतिक शिक्षा को निर्थक मान कर पाठ्यक्रम से हटा  लिया जाता है !किन्तु अक्सर पिता यह सोचकर की बच्चा बड़ा हो गया है और समाज इसलिए बेपरवाह रहता है कि  यह अभिभावक की जिम्मेदारी है ! हर व्यक्ति एक दूसरे  के कंधों पर अपने कर्तव्य  लाद  देते हैं और यहीं से आरम्भ होता है बच्चों का नैतिक पतन ! 13 वर्ष से 19 वर्ष की भावुक उम्र में वे परिवार व् समाज के नियन्त्रण से आज़ाद होकर  वे अपनी अलग  दुनिया  में मग्न हो जाते हैं ! और जब यही बच्चे भटक जातें हैं तब आरभ होता है एक दूसरे  पर आरोप प्रत्यारोपों  का अंतहीन सिलसिला ! इसीलिए सभी से अनुरोध की समय रहते ही सजग हो जाएँ नहीं तो आने वाला कल अनैतिक तत्वों से बढ़ जाएगा जिसमें आप हम सभी दोषी होंगे !

बुधवार, 2 जनवरी 2013

 जन जाग्रति अभियान   
अनैतिकता ,मूढ़मान्यता  और कुरीतियों  के कारण होने वाले भयंकर अनर्थों से अब भारत को बचाना होगा ! पिछले वर्ष की गतिविधियों का अवलोकन करने से नैतिक , बौद्धिक  और सामाजिक  क्षेत्रों में अनेक अनीतियाँ  देखने  में आयीं  जिनके विरुद्ध जनमत और आक्रोश भी फैला ! लोक चिंतन को उत्कृष्ट्ता की दिशा  में अग्रसर करने वाले चेतन साहित्य को बढ़ावा  देना होगा ! यह चिंतन हर वर्ग तक पहुंचाने से एकता व् समता के सिद्धांतों  को मान्यता मिल पायेगी ! 
चिंतन चरित्र निर्माता व् प्रेरणा स्त्रोत होता है जिसमें श्रधा  ,निष्ठा एवं अटूट विश्वास के भाव जागृत हो  ऐसे लोगों को एकजुट होकर इस दिशा में कार्यरत होना चाहिए ! यदि सिद्धांतो  के प्रति हम निष्ठावान नहीं हुए तो  भटकाव युही बना रहेगा ! हर जिम्मेदार व्यक्ति को अपने चिन्तन व् कर्मों से सदैव अपने को आस्थावान बनाकर रखना है !
नव युग चेतना का आधार आत्मीयता होना चाहिए ! जब भी किसी कार्य के प्रति संकल्प लेते हैं , तो भावनाओ  की रस्सी ढीली यदि रखेंगे तो मनुष्य के भटकने का खतरा और यदि  कसाव रखेंगे तो उलंघन का खतरा सदैव बना रहेगा ! इसीलिए प्यार ही वर्तमान परिस्तिथि में सामाजिक बंधन में मजबूती लाएगा ! अपने व्यक्तिगत यश की कामना में या गरीबी से जूझ रहे जीवन का अक्सर  सामाजिक भटकाव की ओर  ध्यान नहीं जाता ! वे यह सोचते हैं कि  यह कार्य सरकार का है ! उन्हें इन फालतू चीज़ों के लिए  समय ही कहाँ ! ऐसे लोग सामाजिक दायित्व के साथ विश्वासघात  करते हैं !
समय की परिपाटी में हम यह  नहीं समझ पाते कि सामाजिक  दायित्वों से मुह मोड़कर ,हम अपना पतन स्वत : ही कर रहे हैं , जिसके फलस्वरूप  न केवल आप अपितु आपकी जीवात्मा  आने वाले कल में आत्मग्लानि से पीड़ित रहेगी ! अब तक  समाज में जो कुछ हो रहा है , उसके प्रति सजग होने का समय आ गया है ! हमारे व्यक्तित्व का स्तर जितना ऊँचा  होगा ,उसी से पारिवारिक शक्ति और सामाजिक जागृति बढ़ेगी !
छोटे बच्चों  द्वारा शिष्टाचार  पालन में ढील  को हंसकर टाला  जा सकता है पर बड़े होकर मर्यादाओं का पालन अत्यंत  आवश्यक हो जाता है ! अब समय आ गया है कि बाल्यकाल  से ही आचरण  पर पैनी नजर रखनी होगी ! समाज में बिखरे  अनगिनत माणिक्यों को ढूंढकर ऐसे समूह का निर्माण करें ,जिसका कार्य जन जाग्रति अभियान से घर  घर के मोतियों को तराश कर समाज की सुंदर  माला  तैयार की जा सके ! घर के बच्चों में संस्कारों का आभाव या उनके आचरण में कमी दिखे तो उन्हें  समय रहते ही सुधार लिया जाए ! ताकि वे भी विचारशील लोगों की मधुर कड़ी में सम्मिलित हो जायें ! ऐसे व्यक्तियों के आभाव में ही तो आज समाज का कुरूप चेहरा सामने आ रहा है !
अध्यात्म व् नैतिक शिक्षा का प्रचार व् प्रसार अत्यंत जरूरी है ! सत्प्रवृतियों  की प्रतिष्ठापन  व् हर बच्चे का उत्साहवर्धन समाजिक दर्पण में स्पस्ट दिखना चाहिए ! जो लोग आत्मविश्वास के धनी और धैर्यवान होते हैं वे इन परिस्तिथियों पर आसानी से विजय प्राप्त  कर लेते हैं !
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