बुधवार, 4 सितंबर 2013

शिक्षक दिवस 
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शिक्षक दिवस एक ऐसा दिन है जब हम उन गुरुओं का धन्यवाद करें जो हमें शिक्षा प्रदान कर हमारे जीवन में उजाला भर हमें जीवन जीने के सही तरीके से अवगत कराते हैं। शिक्षक दिवस गुरु की महत्ता बताने वाला प्रमुख दिवस है । भारत में 'शिक्षक दिवस' प्रत्येक वर्ष 5 सितम्बर को मनाया जाता है। शिक्षक का समाज में आदरणीय व सम्माननीय स्थान होता है। भारत के द्वितीय राष्ट्रपति डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस और उनकी स्मृति के उपलक्ष्य में मनाया जाने वाला 'शिक्षक दिवस' एक पर्व की तरह है, जो शिक्षक समुदाय के मान-सम्मान को बढ़ाता है। किसी भी राष्ट्र के विकास में शैक्षिक विकास की भूमिका अहम है। शिक्षक दिवस शिक्षकों को अपने जीवन में उच्च जीवन मूल्यों को स्थापित कर आदर्श शिक्षक बनने की प्रेरणा देता है।
समाज को संस्कारवान बनाए रखने का महत्वपूर्ण कार्य शिक्षक करते हैं ! शिक्षक बच्चों का जीवन तराशकर उसे समाज के लिए सक्षम् बनाने वाला जौहरी  होता है ! वास्तव में गुरु की महिमा अपरंपार है ! वह तो देवतुल्य या उससे भी बढ़कर है !
गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागू पाय
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।
कबीरदास द्वारा लिखी गई उक्त पंक्तियाँ जीवन में गुरु के महत्त्व को वर्णित करने के लिए काफी हैं। भारत में प्राचीन समय से ही गुरु व शिक्षक परंपरा चली आ रही है। गुरुओं की महिमा का वृत्तांत ग्रंथों में भी मिलता है। एकलव्य और द्रोणाचार्य जैसे गुरु-शिष्य के कई उदाहरण हमारे सामने है। विद्यार्थी जीवन में ही नहीं बल्कि जीवन के हर पथ पर हमें कोई न कोई ऐसा व्यक्ति मिलता ही है जो हमारे जीवन में एक सकारात्मक परिवर्तन लाता है। शिक्षक उस माली के समान है, जो एक बगीचे को भिन्न-भिन्न रूप-रंग के फूलों से सजाता है। जो छात्रों को कांटों पर भी मुस्कुराकर चलने को प्रोत्साहित करता है। उन्हें जीने की वजह समझाता है। शिक्षक के लिए सभी छात्र समान होते हैं और वह सभी का कल्याण चाहता है। शिक्षक ही वह धुरी होता है, जो विद्यार्थी को सही-गलत व अच्छे-बुरे की पहचान करवाते हुए बच्चों की अंतर्निहित शक्तियों को विकसित करने की पृष्ठभूमि तैयार करता है। वह प्रेरणा की फुहारों से बालक रूपी मन को सींचकर उनकी नींव को मजबूत करता है तथा उसके सर्वांगीण विकास के लिए उनका मार्ग प्रशस्त करता है। किताबी ज्ञान के साथ नैतिक मूल्यों व संस्कार रूपी शिक्षा के माध्यम से एक गुरु ही शिष्य में अच्छे चरित्र का निर्माण करता है। एक ऐसी परंपरा हमारी संस्कृति में थी, इसलिए कहा गया है कि-
"गुरु ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात परब्रह्म तस्मैः श्री गुरुवेः नमः।"
विवेकानंद एक ऐसे शिष्य थे जिन्होने अपने गुरु से जीवन जीने का सही तरीका सीखा। उन्होने अपने गुरु के दिखाए पथ पर चलते हुए न जाने कितने लोगों के जीवन में प्रेम, नि:स्वार्थ सेवा और सत्यता का दीपक प्रज्वलित किया। गुरु का स्थान तो माता-पिता से भी ऊँचा होता है, क्योंकि माता-पिता जीवन देते हैं और गुरु उस जीवन का सही अर्थ समझाकर, सत्य का मार्ग दिखाते हैं।अगर वही गुरु, शिष्यों के जीवन में अंधकार का कारण बन जाएँ तो कैसे कोई शिष्य एकलव्य और विवेकानंद बन पाएँगे। आधुनिक युग में शिक्षक की भूमिका बहुत बढ़ गयी है ! एक बच्चे के सर्वांगीण विकास में शिक्षक अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है जिसमें वह उसका शैक्षणिक, मानसिक, भावनात्मक, सामाजिक व साँस्कृतिक विकास भी करता है  ल  राष्ट्र निर्माण में छात्रों की भूमिका, शिक्षक द्वारा दिये गए मार्गदर्शन पर निर्भर करती है जिसमें शिक्षक अमृत के समान होते हैं। उन्होंने कहा कि छात्र-शिक्षक एक सिक्के के दो पहलू हैं, जिसके बिना मजबूत समाज और राष्ट्र की कल्पना नहीं की जा सकती है।
आधुनिक युग में शैक्षिक विकास के साथ साथ भोतिकवाद की दौड़ भी तेज हुयी है ! प्रत्येक व्यक्ति अधिक से अधिक सुख सुविधाएँ जुटा लेने को प्रयासरत है जिसने गला काट प्रतिद्वंद्विता को जन्म दिया है! झूंठ ,मक्कारी धोखेबाजी ,चापलूसी ,हिंसा जैसे अवगुणों को अपनाना उसकी मजबूरी बन गयी है अर्थात नैतिकता का अस्तित्व समाप्त प्रायः होता जा रहा है !यह तो कटु सत्य है कि बिना, नैतिक उत्थान के सिद्धांतों , की रक्षा किये मानव विकास संभव नहीं है !  ऐसे वातावरण में भी  हमें आदर्शों को भूलना नहीं  चाहिए या अपने बच्चों को आदर्शों पर अडिग रहने के लिए उन्हे प्रेरित करते रहना चाहिए !आज के आधुनिक युग में जब शिक्षण मात्र एक व्यवसाय बन कर रह गया है ! ऐसे में समय के साथ छात्रों और शिक्षकों के आपसी संबंध भी बदले हैं ! आज शिक्षा में शिक्षक की भूमिका को अस्वीकार कर इ-लर्निंग जैसी बात हो रही है और आधुनिक ज्ञान विज्ञान के अविष्कारो ने इसे  कुछ हद तक संभव भी बनाया है लेकिन आमने सामने के शिक्षण में जो आपसी  विचारों का आदान- प्रदान है वह दूर शिक्षा में संभव नहीं हो पाता ! उसमें विचारों का एक तरफा बहाव है जो छात्रों का सम्पूर्ण विकास नहीं कर पाता ! लेकिन साथ ही हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि आमने सामने कि शिक्षा का माहौल भी कटु हो गया है !  शिक्षक दिवस का भी बाजारीकरण हो गया है ! महंगे गिफ्ट, झूठी बड़ाई अपनी प्रशंसा इसी की भूख है ! साथ ही छात्रों का भी शिक्षकों के प्रति विश्वास घटा है और व्यवहार बदला है यानि छात्र और शिक्षक दोनों ही एक दूसरे को संदेह की दृष्टी से देखने लगे हैं ! इसके पीछे दोनों के व्यवहार में आये परिवर्तन ही दोषी हैं  जिससे छात्रों और शिक्षकों के बीच मतभेद बढता जा रहा है ! अब उनमें पहले सा आत्मीय स्नेह नहीं रह गया है ! एक तरफ छात्र शिक्षकों के पीठ पीछे उनका मजाक उड़ाने से नहीं चूकते  ! शिक्षक भी कुछ हद तक  फ़िल्मी शिक्षको की तरह विदूषक मात्र रह गए हैं जो कक्षा में घुसते ही सो जाते हैं या अन्य किसी हास्यास्पद स्तिथियों के जनक बन जाते हैं,  साथ ही वे  भी अब मात्र पाठ्यक्रम भर से नाता रखने लगे हैं !  दबाव और भय के माहौल में शिक्षक भी ‘जैसा चाल रहा है चलने दो’ की नीति अपना कर अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ रहे  हैं. और इन सबका परिणाम है संस्कारहीन बच्चे और बढ़ते अपराध ! आज जब इलेक्ट्रोनिक मीडिया, समाचार पत्रों में कहीं शिक्षकों के नैतिक पतन की, व्यभिचार की,  तो कहीं छात्रों द्वारा शिक्षकों की हत्या तक की ख़बरें देखने और पढ़ने को  मिल रही है तो स्थिति और वीभत्स हो गई है , शिष्यों द्वारा गलत आचरण और शिक्षकों की उदासीनता समाज के लिए चुनौती बनता  जा रहा है ! आजकल बच्चों में आ रहे मूल्यों में गिरावट के कारण शिक्षकों की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गयी है। अब समय आ गया है कि प्रत्येक शिक्षक इस बात को प्रभावशाली ढंग से सामने लाये कि मूल्य शिक्षा बच्चों के  भविष्य के लिए अनिवार्य है ।
ये विश्वास से मानना होगा कि गुरु का इस आधुनिक युग में भी महत्ता में जरा भी कमी नहीं आई है ! गुरु का अनादर करने वाले शिष्य जीवन में कभी सफल नहीं हो पाते हैं ! इसीलिए जीवन में सफलता और सम्मान पाने के लिए सभी को गुरुओं का आशीर्वाद लेते रहना चाहिए ! गुरु का महत्व आज भी  अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को प्रेरणा स्त्रोत को  कहा जाता है ! गुरु के बिना ज्ञान संभव नहीं है। गुरु-शिष्य परंपरा भारत की संस्कृति का एक अहम और पवित्र हिस्सा है और सदैव रहेगा ! समाज के शिल्पकार कहे जाने वाले शिक्षकों का महत्व यहीं समाप्त नहीं होता क्योंकि वह ना सिर्फ आपको सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं बल्कि आपके सफल जीवन की नींव भी उन्हीं के हाथों द्वारा रखी जाती है। आए सभी मिलकर एक स्वस्थ स्माज के निर्माण हेतू संकल्पबद्ध होकर उज्ज्वल भारत का निर्माण करें और यह तभी संभव होगा जब गुरु शिष्य परंपरा का सभी मिलकर पालन करें !
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सभी आदरणीय सदस्य , शिक्षकगण  व सुधी पाठक जन को शिक्षक दिवस कि मंगलकामनाए ! 

रविवार, 12 मई 2013

मातृ दिवस


माँ अपने आप में सम्पूर्णता लिए हुए एक ऐसा शब्द जिसका वर्णन करना भी एक परम सौभाग्य का विषय है ! विश्व में अधिकतर देश इस दिन को धूमधाम से मनाते हैं किन्तु हमे माँ को सम्मानित करने के लिए किसी विशेष दिवस की आवश्यकता नहीं है ! भारत में प्रत्येक दिन हर घर में माँ की वंदना करने की परम्परा रही है ! आज पाश्चात्य के प्रभाव से हमारी संस्कृति ने इस लोक आडम्बर को अपना लिया है ! 
माँ के बारे में अपने अंतर्मन से पूछें कौन है और क्या है , तो उत्तर आएगा माँ हमारे जीवन की वह अमृतधारा है जो दिव्य है ,अतुलनीय ,अकथनीय है ! जन्म से मृत्यु तक हमारे सुख दुःख की सच्ची संगिनी होती है माँ ! हर व्यक्ति के जीवन में माँ का स्थान उसके नजरिए पर निर्भर करता है ! हमारे जीवन का प्रतीक माँ गर्भ से लेकर हमारे सम्पूर्ण जीवन संचालिका होती है ! माँ की ममता वह सागर जिसकी थाह न कोई ले सका है, न ही कभी ले सकेगा ! माँ ,जीवांश से जीवन देने और जीवन देने से लेकर विभिन्न आयामों की कुशल संचालिका होती है ! माँ की ममता अतुलनीय ,अकथनीय होती है ,वह बच्चों का जीवन संबल होती है ! हर घर आँगन की अनुराग होती है माँ ! वह जीवन के हर कष्ठ झेलकर भी अपने बच्चों की ख़ुशी ढूंढ लेती है ! हम स्वय जिसका अंश हैं उसका ऋण तो चुकाना कल्पना से परे है ! ईश्वर हर स्थान पर नहीं पहुँच सकता इसलिए उसने अपने कार्य माँ को सौप दिया !प्रख्यात कवि आलोक श्रीवास्तव जी ने माँ को कुछ यूँ परिभाषित किया है जो अदभुत है _
घर में झीने रिश्ते मैंने
लाखों बार उधड़ते देखे
चुपके चुपके कर देती थी
जाने कब तुरपाई अम्मा !
माँ की समवेदनाएं अतुलनीय होती है जिसमें उसका ध्यान योग अर्थात टेलीपथी सबसे प्रबल होती है ! मानव हो या पशु पक्षी योनि माँ की तपस्या का कोई मोल नहीं है ! माँ को अपने बच्चे के प्रति समवेदनाएं चौबीस घंटे स्पन्दित होती रहती हैं जैसे इंसान तो इंसान गाय भी मीलों दूर जंगल में भी अपना ध्यान अपने बछड़े पर लगाये रहती है ,घर पर उसके रभाने पर वह भी उससे अपनी आवाज मिलाकर घर लौट आती है ! असल में माँ की ममता को तीन भागो में विभाजित किया जा सकता है - मुर्गी छाप , कछुआ चाप और कुञ्ज छाप ! मुर्गी अपने अन्डो को अपने स्पर्श से जगत में लाती है , कछुआ अपनी निगाहों से अपने अण्डों को सेककर इस दुनिया में लाती है तो इन सब में सर्वोतम तपस्या कुञ्ज पक्षी का होता है जो अपने ध्यान योग से अपने बच्चो को जगत में लाती है जबकि वह स्वय अपने अंडो से कोसो दूर रहती है ! माँ के इस ध्यान में अतुलनीय शक्ति है कि उसके बच्चे संसार के किसी भी कोने में हो उसके तन मन से बस अपने बच्चों की मंगल कामना में समर्पित रहता है !अपने बच्चों के मन के हर जज्बात को सम्भाल लेने में माँ की भूमिका सर्वोपरी है !
प्रसिद्ध माताओं में अग्रणीय जीजाबाई शौर्यता का प्रतीक , अहिल्याबाई होलकर न्याय का प्रतीक और पन्ना धाई अपने राज्य सेवा धर्म में त्यागी सेविका के रूप में इतिहास में सदा याद रखी जाती है ! हमारी संस्कृति में वसुंधरा को माता कहा गया है ! हम भारतवासी अपनी जन्मभूमि को माँ मानते है जो पूरी दुनिया में एक मिशाल है ! हम सभी बड़े गर्व से स्वय को माँ भारती की सन्तान मानते है !
आज आधुनिक समाज में माँ का सम्मान कदाचित घट रहा है ! व्यक्ति के जीवन मूल्यों में विकृति दिखने लगी है ! जिस माँ की चरण वन्दना से दिन प्रारम्भ होता था आज उसका तकरीबन हर घर में तिरस्कार हो रहा है ! जिस माँ ने उसकी पैदाइश से लेकर उसके हर आह में साथ दिया आज बच्चे अपने दायित्व से मुह मोड़कर अपनी ही माँ को दो वक़्त की रोटी , प्यार के दो बोल और थोडा सा आसरा देने से कतराने लगे है ! जिस माँ ने अपने जीवन की अनगिनत रातें हमे सुख देने में काट दी थी आज उसी के बीमार होने पर हम उसके लिए एक रात जगना तो दूर ,उसके सिराहने के पास बैठने तक का समय नहीं निकाल पाते ! जिस माँ के ऋण से मुक्त होना असम्भव माना जाता था आज इसी तथाकथित समाज में उसे तिरस्कार ,वृद्धा आश्रम का रास्ता व् मानसिक आघात मिल रहा है ! व्यक्ति के जीवन की आधार माँ का बुढापा बच्चों को बोझ क्यूँ लगता है ,जब वह शैशवकाल में हमारा साथ देती है तो हम अपने कर्तव्यों से क्यूँकर मुह मोड़ना चाहते है !बच्चे तो स्वार्थान्ध होकर उसे अपने प्रत्येक कार्य की उपलब्धी का साधन मात्र मानते हैं ! परिवार की सम्बल माँ सदैव कुपोषण का शिकार होती रही है ,अल्पायु में उसे भाँती भाँती की बीमारियाँ घेर लेती हैं किन्तु तब भी उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं आता !
ऐसा नहीं है कि माँ का नकरात्मक पहलू न दिखता हो ! आधुनिकता की मार माँ की भूमिका में नारी में दिखने लगा है ! आज नारी कुछ आवश्यकताओ की पूर्ती या फिर अपने महत्वकांक्षाओ की पूर्ती हेतू माँ की भूमिका से मुह मोड़ने लगी हैं ! बच्चों का लालन पालन क्रेच ,आंगनबाड़ी के हवाले कर अपने कर्तव्यों की इति समझ रही है ! जो समय बच्चा अपनी माँ के आँचल में गुजारता है वह समय तो आधुनिक माएँ आफिस या क्लबों को दे रही हैं जिसका नतीजा बच्चों में संस्कारहीनता स्पष्ठ दिखने लगी है ! आज जो समाज का नैतिक पतन हो रहा है उसमें कहीं न कहीं माँ की भूमिका से नारी का मुह मोड़ना दृष्टीगोचर हो रहा है ! अपने स्वार्थ और नाम ख्याति की पूर्ती की इच्छा में वह अपने बच्चो को जीविका का साधन बनाते हुए उन्हें वक्त से पहले परिपक्व बनाने वाले क्षेत्रों की ओर प्रेरित कर रही है ! माँ ही ममतान्ध में अपने ही घर परिवेश में भेदभाव के बीज बोती है ! बेटियों को बेटों के सामने कम आंकना ,आज गम्भीर विकृतियों को जन्म दे रही है ! आज के वर्तमान परिवेश में माँ का दायित्व निबाहती नारी को रुढ़िवादी परम्पराओं को तोड़कर समयनुसार स्वय को बदलना होगा ! समभाव से बच्चों का लालन पालन ,संस्कारों से परिपूर्ण एक स्वस्थ समाज की ओर अग्रणीय भूमिका निबाहनी होगी ! माँ आखिर माँ ही होती है ,वह कभी कुमाता नहीं हो सकती , बेटी हो या बेटा सब को दे समान दुलार ! बेटी बहू में उपजी वर्षों की खायी को पाटने का अधिकार है नारी अधीन जो कभी न कभी माँ की भूमिका में आती है !
अंत में वस्तुत: माँ जैसे आलोकिक शक्ति से स्मरण मात्र से न केवल हमारे कष्ठ हल्के हो जाते है अपितु उसके दर्शन मात्र से 
प्रफुलित हो जाता है ! हमारे वेद, पुराण, दर्शनशास्त्र, स्मृतियां, महाकाव्य, उपनिषद आदि सब ‘माँ’ की अपार महिमा के गुणगान से भरे पड़े हैं।वेदों में ‘माँ’ को ‘अंबा’, ‘अम्बिका’, ‘दुर्गा’, ‘देवी’, ‘सरस्वती’, ‘शक्ति’, ‘ज्योति’, ‘पृथ्वी’ आदि नामों से संबोधित किया गया है। इसके अलावा ‘माँ’ को ‘माता’, ‘मात’, ‘मातृ’, ‘अम्मा’, ‘अम्मी’, ‘जननी’, ‘जन्मदात्री’, ‘जीवनदायिनी’, ‘जनयत्री’, ‘धात्री’! श्रीमदभागवत पुराण में उल्लेख मिलता है कि ‘माताओं की सेवा से मिला आशिष, सात जन्मों के कष्टों व पापांे को भी दूर करता है और उसकी भावनात्मक शक्ति संतान के लिए सुरक्षा का कवच का काम करती है।’ इसके साथ ही श्रीमदभागवत में कहा गया है कि ‘माँ’ बच्चे की प्रथम गुरू होती है।‘ आप सभी को सादर शुभकामनाएं कि हर घर में होगा माँ का सम्मान , भारत माँ का अडिग रहेगा मान सम्मान !

मंगलवार, 19 मार्च 2013

होली में सुरक्षा 

भारत त्योहारों का देश है ! प्रत्येक महीने में प्रत्येक दिवस किसी न किसी आस्था के साथ जुड़ा  है ! यही त्यौहार भारतीय संस्कृति की अमिट  पहचान होने के साथ समाज को सुसंस्कृत भी करती है ! त्यौहार विभिन्नता  में एकता के प्रतीक हैं ! होली भी इन में से एक फाल्गुन माह में मनाया जाने वाला हर्षो उल्लास का पर्व है ! इस समय प्रकृति अपने अनुपम सौन्दर्य में नहा रही होती है ! पुष्पों से भरे उपवन जंगल मन को प्रफुल्लित करते हैं ! इस अनुपम छटा को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो धरती स्वय फाल्गुन की मस्ती में फूलों से होली खेल रही हो !

हमारे समाज में होली का अपना अलग ही महत्व है ! लोग रंग भेद भुलाकर गुलाल की मस्ती में  अपने सभी रंजो गम  भुलाकर खूब खुश होते हैं ! आज पारम्परिक रंगों का स्थान रसायनों ने ले लिया है ,इनसे बचना और बच्चों को उचित जानकारी देने की आवश्यकता है ! इस त्यौहार से जुडी कहानी बच्चों को अवश्य सुनाएं ! सर्वप्रथम होली वाले दिन बच्चे के पूरे शरीर में सरसों का तेल लगा लें ! बच्चों को गंदगी से खेलने से रोके ,उन्हें इको फ्रेंडली  रंग दें ! होली का नाम आते ही रंग भरा वातावरण सामने आ जाता है। ऐसे में बच्चे ज्यादा हुडदंग मचाते हैं और रंगों का प्रयोग करते हैं जिसका असर उनके स्‍वास्‍थ्‍य पर पडता है। भारत में हर साल लगभग 80 प्रतिशत लोगों को रंगों के दुष्प्रभाव का सामना करना पडता है। 

डॉक्टरों के अनुसार होली के बाद त्वचा, कान, आंख व सांस के मरीज 50 प्रतिशत तक बढ जाते हैं जिसमें बच्चों की संख्या ज्यादा होती है। बच्चों की त्वचा बहुत कोमल और नाजुक होती है जो इन केमिकलयुक्त रंगों को बर्दास्त नहीं कर पाती है और बच्चों को कई प्रकार के चर्म रोग हो जाते हैं। इसलिए होली में बच्चों को केमिकलयुक्त और गीले रंगों की बजाय सूखे रंग और गुलाल दीजिए।  बच्चों को गुब्बारे वाले खेलों से दूर रखे ,इससे उनको या दूसरे  को जीवन भर का नुक्सान हो सकता है !

स्वच्छता  के सारे नियम इस दिन भंग हो जाते है ! जो जैसा मिला बस खा लिया ! बच्चों को सही गलत का मापदंड भी सिखाएं ! यदि बच्चों की तबियात खराब हो जाए तो सारा त्यौहार की मयुज मस्ती ख़राब हो जाती है ! इसीलिए उन्हें कहीं भी बहार कुछ भी खाने से रोके ! घर पर ही शुद्ध व्यंजन बनाएं ! बाहर की मिठाईयां  व् पकवान भले ही आकर्षक हो किन्तु स्वच्छता का आभाव व् मिलावट का खरतर लगातार बना रहता है !बच्चों को व्यवहारिक ज्ञान भी दें ताकि बच्चे किसी रंजिश का शिकार न बन बैठे  ! चलो मनाएं होली  खुशियों के रंगो संग !

गुरुवार, 14 मार्च 2013


प्रणाम का महत्व



आज अपनी रचना से ही अपनी बात आरम्भ करती हूँ , सभी के जीवन  में प्रणाम की महत्ता है ! प्रणाम रुपी ताले में उन्नति की चाभी होती है ! आएँ पहले जाने प्रणाम किन्हें करना होता है !

” सुबह करो प्रथम प्रणाम परमेश्वर का ,
जग में जलता दिया जिसके नाम का ,
उसके बाद करो दर्शन अपने करों का
जिनमें संचित होता प्रकाश ज्ञान व् स्वास्थ्य का ,
फिर सुमिरन में प्रणाम करो धरती गगन पाताल का ,
जिनसे देखो हरदम चलता जीवन सभी का ,
फिर सदैव होता प्रणाम घर में वृद्धों का
जिनके ह्रदय में बसता संसार आशीर्वाद का
फिर न भूलना प्रणाम अपनी जननी का
संघर्ष झेलकर जिसने कर्ज निभाया धरती का
फिर प्रणाम का अधिकार होता पिता का
जिसने हमे सिखाया कर्तव्य अपने जीवन का
फिर प्रणाम का अधिकार शिक्षक का
जिसने भेद सिखाया ज्ञान व् फ़र्ज़ के अंतर का
वैसे तो प्रणाम में समाहित संसार संस्कारों का
जीवन में अपना लेना प्रणाम का पथ उन्नति का !”

भारतीय संस्कृति में हाथ जोड़कर प्रणाम को अभिवादन सूचक माना जाता है ! अच्छे जीवन की प्राप्ति हेतु विभिन्न संस्कारों की भूमिका अतुलनीय होती है ! हमारी भारतीय संस्कृति में जन्म से मृत्यु तक संस्कारों की अमृत धारा प्रवाहित होती रहती है ! अच्छे संस्कार व्यक्ति को यशश्वी , उर्जावान व् गुणवान बनाते हैं ! संस्कार देश की परिधि निर्धारित करती है ! इसीलिए समाज के सभी सदस्यों को संस्कारों की मान गरिमा बनाये रखने हेतु सजग रहना चाहिए !

बच्चों को समझाएं कि जो अपनत्व प्रणाम में है वह हाथ मिलाने के आधुनिक व्यवहार में नहीं होता ! पाश्चात्य संस्कृति का दुरूपयोग करने के नकरात्मक प्रभाव आते है , व् स्वास्थ्य के लिए भी खतरा साबित हो सकते हैं ! हेल्लो , हाय , बाय व् हाथ मिलाने से उर्जा प्राप्त नहीं होती ! हमारी आज की युवा पीढ़ी अपनी स्वस्थ परम्परा को ठुकराकर अपने लिए उन्नति के द्वार स्वय बंद कर रहे है ! हाथ मिलाने से बचें , दोनों हाथ जोड़कर या पाँव पर झुक कर अभिवादन की आदत डालें , और हाथ मिलाना से जहाँ तक हो सके बचे क्यूंकि यह स्वास्थ्य के मार्ग में और अध्यात्मिक उत्थान के मार्ग में अवरोधक हैं !

अच्छे संस्कारों में सर्वप्रथम बच्चों को बडो का सम्मान करना सिखाईये ! बच्चों को प्रणाम का महत्व समझाईये ! बच्चों के जीवन की सम्पनता प्रणाम में ही संचित होती है ! जो बच्चे नित्य बडो को , वृद्ध जनों को , व् गुरुजनों को प्रणाम करते हैं और उनकी सेवा करते हैं , उसकी आयु , विद्या , यश और बल सभी साथ साथ बढ़ते हैं ! हमारे कर्म और व्यवहार ऐसे होने चाहिए कि बड़ों के ह्रदय से हमारे लिए आशीर्वाद निकले , और हमारे व्यवहार से किसी के ह्रदय को ठेश न पहुंचे ! प्रणाम करने से हमारे समूचे भावनात्मक और वैचारिक मनोभावों पर प्रभाव पड़ता है जिससे सकरात्मक बढती है ! आयें अपने बच्चों को सही मार्ग दर्शन दें !
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बुधवार, 6 मार्च 2013

तनाव तो जीवन उपहार 

इम्तहान का दौर आरम्भ हो चुका  है ,सैकड़ों विद्यार्थी बोर्ड की परीक्षा दे रहे हैं ! परीक्षा कोई भी हो ,आपके पूरे वर्ष की मेहनत का रहस्य छुपाये रहती है ! इन दिनों तनाव  बढना स्वाभाविक है क्यूंकि आपका सम्पूर्ण भविष्य  के निर्माता होते   हैं ये इम्तहान  ! बच्चे ,अभिभावक व् शिक्षकगण  इससे सभी प्रभावित होते हैं ! रात दिन एक करके पढाई करना ,अभिभावकों द्वारा भारी दबाब बच्चों पर घातक असर डालता है ! यह ज्ञात रहे बिना तनाव के कोई भी व्यक्ति जीवन में कोई भी मुकाम हासिल नहीं कर सकता ! यह वह अमृत धारा है जिसके सेवन से आपको अच्छे परिणाम प्राप्त करने की प्रबल इच्छा जागृत होती है ! तनाव मुक्त जीवन में व्यक्ति संघर्षशील  नहीं होता , अधिक प्रयास करने की उसकी इच्छा भी नहीं होती और वह नीरस जीवन व्यतीत करता है ! इसीलिए परीक्षा  से डरें  नहीं अपितु अपने कार्य को सुनियोजित तरीके से पूर्ण करने  की कोशिश करें ! 
सर्वप्रथम विद्यार्थी  ये याद रखें कि  परीक्षा पास करने में ईश्वर उनकी तभी मदद करेगा जब वे अध्यन में दिलचस्पी दिखायेंगे  ,जितना समय वो आपस में  गिले शिकवे  दूर करने में ,मन्दिर मस्जिदों के चक्कर काटने में व्यर्थ करेंगे ,उतनी  ही दूर उनकी मंजिल दिखेगी ! यदि किसी कारणवश आपने वर्ष भर अध्यन   नहीं किया  और  अब भी यदि  समय गवायेंगे  तो क्या हासिल होगा ! अपने भाग्य को कोसने या फिर कम अंक आने के भय से नकरात्मक उर्जा को अपने ऊपर होने ही नहीं देना है ! आजकल बच्चों ने बड़ा आसान  मार्ग ढूंढ लिया है ! यदि अंक अच्छे नहीं आये या परचे अच्छे नहीं गए ....तो घर से भाग जायेंगे , या फिर मौत को गले लगा लेंगे ,सारा झंझट ही खत्म हो जायेगा ! नही प्रिय बच्चों ऐसा बिलकुल भी नहीं है ,व्यक्ति का पूरा जीवन ही इम्तहान है जिसे उसे डटकर सामना करना होता है , बढाओ से डरकर आप कहीं भी जायेंगे नित्य नए इम्तहान आपके सामने आ खड़े होंगे ! इसीलिए अपने को सदा भाग्यशाली समझना कि ईश्वर ने आपको परीक्षा योग्य समझा तभी तो आप विद्यालय जा सके ,जरा उन लाखों बच्चों की ओर देखो जिन्हें दो वक़्त की रोटी नसीब नहीं होती ,विद्यालय  पहुँचना  तो उनके लिए सपने सरीखा है ! और क्या उनके जीवन का संघर्ष अपने आप में स्वयं इम्तहान से क्या कम है ! हरिवंश राय  बच्चन जी कविता बारम्बार पढ़ा करो ...तनाव ही आपकी मंजिल बनने में सहायक सिद्ध होगी ...याद कर लेना इस रचना को और जीवन में अपने उतार लेना 
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है ।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है ।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है ।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में ।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो ।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम ।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती !
अभिभावकों से भी निवेदन केवल परीक्षा के दिनों में बच्चों पर परीक्षा का दबाब न बनाएं , पूरे वर्ष भर उनका संबल बने और उनकी हर विषय की समस्याओं  को समझने की चेष्ठा  करें ! अच्छा स्वास्थ्य वर्धक भोजन ,व्यायाम  ,व् जीवन संघर्ष युक्त प्रेरित करती रचनाओं द्वारा उनके उचित मार्गदर्शी बनिए ! परीक्षा नजदीक आते ही माता-पिता का तनाव बच्चों पर हावी होने लगता है। बच्चों ने चाहे पूरे साल ढंग से तैयारी की हो पर परीक्षा नजदीक आते ही माता-पिता बच्चों के पीछे पडे रहते हैं। टीवी देखना, बातें करना, खेलना-कूदना सब बंद कर देते हैं। पर यह सब गलत है। जहां तक हो सके बच्चों के साथ दोस्ताना बर्ताव करें। अपना  तनाव कम रखें ताकि बच्चे तनाव में न आए। हर वक्त बच्चे को पढते रहने की नसीहत न दें। उसे अपने हिसाब से तैयारी करने के लिए कहें। बस यह ध्यान रखें कि वह हर विषय को पूरा समय दे। तनाव युक्त जीवन को सहर्ष अपनाएं अपना व् समाज हित में सदैव अग्रसर रहिए ! सभी परीक्षार्थियों को मेरी और से शुभकामनायें !

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

बढ़ता इलेक्ट्रॉनिक नशा 

आज की भागती दौड़ती जीवन शैली में लोगों के व्यवहार में भारी  परिवर्तन आया है ! एक ही परिवार के सदस्यों के मध्य सामजस्य का आभाव आने लगा है ! आपसी मतभेद से बचने के लिए अनेको माध्यम से लोग अपनी जिम्मेदारी से बचने का कुशल  अभिनय करने लगे हैं ! आज के युग में इलेक्ट्रॉनिक नशा हर व्यक्ति के सर चढ़ कर बोल रहा है ! हम अपने दिनचर्या में मुख्य समय टी . वी या इन्टरनेट के साथ  व्यतीत करना सीख गए हैं !यह ऐसा घातक  नशा बनता जा रहा है जिसमें व्यक्ति के दिलो दिमाग में उसके कार्यक्रमों  के प्रति बैचैनी दिखाई देने लगी है ! सोते जागते , हर कार्य में इन उपकरणों से अत्याधिक लगाव भविष्य  में कई चुनौती को दावत दे रही  है ! 
पहले बच्चे स्कूल से आकर गृहकार्य ,  क्रीडा और बडो के साथ बैठकर विचारों का आदान प्रदान करते थे किन्तु आज वह स्कूल से आने के पश्चात सीधे टी .वी , कंप्यूटर के आगे बैठ जाता है और अपने पसंदीदा कार्यक्रम के साथ भोजन को मात्र भूख मिटाने के लिए खाने लगा है !यही उसे धीरे -धीरे मोटापे , मधुमेह  और ह्रदय रोगों की ओर धकेल रहा है ! इसके साथ साथ मानसिक कुरीतियाँ भी बढ़ रही हैं !अच्छे ज्ञान के स्थान पर बुरे ,हिंसात्मक व् अश्लीलता प्रधान कार्यक्रम की ओर उसका बढ़ता नशा समाजिक चिंता का विषय बन गया है !
आज वयस्क  भी अपनी परेशानी को भुलाने के लिए इन्ही साधनों के आगे घंटों बैठकर समय व्यतीत तो कर लेता है किन्तु उसके पास घरेलू जिम्मेदारी  को निपटाने का समय नहीं होता ! फूहड़ ,बेसिर पैर के कार्यक्रम में उलझा तो रहेगा किन्तु बच्चों को नैतिक ज्ञान देने का उसके पास समय नहीं होता !बड़ी विडम्बना है की जहाँ आपके पास आधा घंटा भी अपने परिवार की उलझनों को सुलझाने हेतु समय नहीं होता तो आप 2-3 घंटे टी .वी .हेतु कैसे निकाल पाते हैं ! इसी तरह महिलाएं चाहे वे घरेलू  हों या कामकाजी ,बेकार के समाजिक पतन दर्शाने वाले कार्यक्रमों पर अपने पारिवारिक  सदस्यों के साथ घंटो बिता लेंगी , या फिर अपनी मित्र मंडली में बढ़ चढ़ कर एक एक पात्र की चर्चा में भाग लेंगी  किन्तु उन बुराईयों के प्रति अपने बच्चों का मार्ग दर्शन करने का उनके पास समय क्यूँ नहीं रहता ? अपनी घरेलू नैतिक जिम्मेदारी के प्रति उसका उदासीन व्यवहार पारिवारिक विघटन  के संकेत देने लगा  हैं ! मुख्य बात यह की अपने पसंदीदा पात्र के जीवन को अपने जीवन का लक्ष्य बना बेहद चिंता का विषय बन गया है !
जिस पारिवारिक परिवेश में इलेक्ट्रॉनिक  एडिक्शन अधिक है वहां के परिवेश में प्रेम ,त्याग और आपसी सामजस्य की भारी कमी दिखने लगी है ! हर कार्यों को एक दूसरे  पर टालने जैसे इन परिवेश के सदस्यों का गुण बन गया है !भौतिक सुखों की आड़ में यह आधुनिक नशा कितना घातक सिद्ध हो रहा है इसका तो शायद आज आदमी समझना ही नहीं  चाह रहा ! मनोरंजन जब विकृत रूप लेने लगे तो समाज को स्वत : सावधान हो जाना चाहिए ! एक बात का सदैव ख्याल रखें कि टी . वी . पर आने वाले कार्यक्रमों का यह काम नहीं कि  वे समाज को दिशा दें या न दें , उनका कार्य तो मात्र पैसा बटोरना है ! चाहे इसके लिए उन्हें फूहड़ मनोरंजन ,हिंसा ,कल्पित ,संस्कार विहीन कहानियाँ ही परोसना पड़े !यहाँ तक कि  धर्माचार्यों  के उपदेशों को ही न सुनना पड़े ! उनको तो आय प्राप्त हो रही है ! यह तो आपको तय   करना है कि  आपके लिए और आपके परिवार के लिए क्या सही है और क्या गलत ! सभी कार्यक्रम सकरात्मक नहीं होते ,उनके नकरात्मक भावों को समझने व् परिवार से बचाने  का प्रयास कौन करेगा ! 
टी . वी .  इन्टरनेट जहां एक ओर  समाज को भटकाव की ओर  ले जा रही है वहीं यदि इसके सकरात्मक पहलूओं  की ओर  यदि हम अपने परिवार का रुझान बढ़ायेंगे तो वह समय का सदुपयोग कहलायेगा ! अधिक से अधिक प्रयास करें कि  सभी परिवार के सदस्य एक सुनिश्चित  समय पर समाचार , ज्ञानवर्धक कार्यक्रम  देखें और उस पर चर्चा करें ! अपने पारिवारिक व् नैतिक जिम्मेदारी को समझें ,एक सुंदर शिक्षित ,संस्कारवान समाज के निर्माण में सहयोग दें !

सदैव याद रखें ,"दुनिया वैसी ही है जैसे हम इसके बारे में सोचते हैं, यदि हम अपने विचारों को बदल सकें, तो हम दुनिया को बदल सकते हैं।" ~ एच. एम. टोमलिसन

बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

बचपन  सँवारें  प्रसंशा  टॉनिक  के संग 

प्रसंशा जीवन  का वह अनमोल रत्न जिसकी धुरी के इर्दगिर्द  मनुष्य के व्यक्तित्व  का विकास  होता है !यह एक टॉनिक के समान है जो व्यक्ति का सर्वांगीण  विकास में सहायक बनता है ! प्रसंशा  के दो बोल व्यक्ति विशेषकर  बच्चों  में आत्मविश्वाश  बढाने के साथ -साथ  उन्हें जीवन संघर्ष झेलने के लिए भी प्रेरित करता है !बच्चों को प्रोत्साहित  करते रहेंगे तो आत्मविश्वास  बढ़ेगा  ! उनके चिन्तन पर  सकरात्मक  प्रभाव  पड़ेगा  ! बच्चों  को सृजनात्मक  कार्यों की ओर  प्रोत्साहित करें   ताकि वे अपने रूचि  के अनुसार और बढ़िया  नतीजे सामने ला सकें ! प्रसंशा करते समय इस बात  का ध्यान रखे की आपके द्वारा दी गयी तारीफ कृत्रिम  न लगे  ,जब भी दें पूरे उर्जा से दें ! बच्चा छोटा भले ही हो अनुभूति उसके भीतर भी है ! 
अक्सर  अभिभावक ही अपने बच्चों के विकास में बाधाएं उत्पन्न करते हैं ! बात बात पर डांटना ,टीका टिप्पण  करना  , हतोसाहित करना जिसके प्रभाव में बच्चों में हीन भावनाओ का विकास होता है ! अभिभावकों द्वारा यह अवधारणा  कि  प्रसंशा  बच्चों को जिद्दी व् घमंडी  बनाता है  ,निराधार है ! मनो वैज्ञानिक  इस दिशा में निरंतर शोध करते रहते हैं ! उनके अनुसार  यदि बच्चों को अपने अभिभावक ,शिक्षकों व् अपने परिवेश का समर्थन  प्राप्त होता है  उनका सर्वांगीण विकास होता है जो उनके जीवनपर्यंत  काम आता है ! बच्चो  की बस आवश्यकता  से अधिक प्रसंशा करना गलत है क्यूंकि यदि वह इसका आदि हो जायेगा तो आप अपना ही महत्व खो देंगे ! ऐसी स्तिथि में वस्तुत :  व् जिद्दी बन सकता है और झूठी प्रसंशा की ओर  लालायत हो जायेगा जिसका नुक्सान उसे तो होगा   ही किन्तु भविष्य में आपकी भी दुखद स्तिथि बनने का अंदेशा रहेगा !
यदि बड़े बच्चों का उचित समय पर उचित प्रसंशा करेंगे  तो बच्चों के मन में इसका सकरात्मक प्रभाव तो दिखेगा ही साथ में वे इस गुण के साथ आस पास के परिवेश में  व्यवहार करते दिखेंगे !किन्तु इसके विपरीत उनके कार्यों को दूसरों के साथ तुलना करते हुए उनकी आलोचना करेंगे तो यही बच्चे न केवल हीन भावना का शिकार होंगे अपितु अपनी त्रासदी से आस पास के माहौल को भी कुंठाग्रस्त बना देंगे !
सभी व्यस्क यह ध्यान रखें कि  हमे बच्चों के सुख दुःख में समभाव रखना है और उन्हें निरंतर प्रगति पथ पर अग्रसर करना है ! उसेउनकी  हार में अकेला न छोड़े  बल्कि उसके मनोदशा में साथ देना है ,इससे उसका मनोबल बढेगा  और उसका ह्रदय भी दूसरों के लिए विशाल बनेगा ! इन्ही भावनाओ को लेकर जब वह  अपने परिवेश में कार्य करेगा तो उसमें आपकी आदतों का प्रतिबिम्ब  स्पष्ठ  दिखेगा ! यदि हम हर स्तिथि में उनका साथ देते हैं  और उसके अच्छे कार्यों पर उनका हौसला बढ़ाते हैं  ,तो आप यह समझ लें की आप  देश के प्रति अपने दायित्व  निबाह रहे हैं ! बच्चों के साथ मित्रता रखेंगे तो उनको भी अहसास  होगा कि दुनिया सुंदर है वे जीवन का मकसद समझेगें।
बच्चों का मन कोमल फूलों की पंखुड़ियों  समान होता है ! यदि बड़े उनकी प्रसंशा करते हैं  तो यही गुण उसके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन जायेगा ! घर में आनन्द का माहौल रहेगा तो बच्चों के भीतर सकरात्मक उर्जा  का संचार होगा  और इस प्रतिस्पर्धा के दौर में वे किसी प्रकार के बोझ में नहीं दबेंगे ! यह भी ध्यान रखे कि  यदि हम उनकी गलतियों में उनको सकरात्मक  दिशा न डकार उनकी आलोचना करेंगे तो वे भी बात बात में आपकी कमियाँ ढूँढने से न चूकेंगे  और आपसे नजरे चुरायेंगे ! कुछ बच्चे दब्बू भी बन जाते है !उनके साथ दुश्मनी भरा सौतेला व्यवहार मत कीजिये अन्यथा वे अपनी कुंठाओं के आग में समाज के विध्वंशक  बन जायेंगे जिसका पश्चताप भी नहीं हो सकेगा ! रास्ट्र  के  निर्माण  में हमे  अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निबाहनी है ! आएँ  हम सभी मिलकर प्रसंशा टॉनिक  का प्रचार करें ! हमेशा याद रखें  कि'' यदि आप चाहते हैं कि आपका बच्चा सही मार्ग पर चले, तो केवल उसे सही मार्ग की जानकारी प्रदान न करें, बल्कि उस पर चल कर भी दिखाएं।'' ~ जे. ए. रोसेनक्रांज

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

शिक्षा और संस्कार

सुंदर संस्कारवान समाज का निर्माण  बच्चों में पड़ने वाली दृढ  नीव पर आधारित होती है ! यदि नीव कमजोर होगी तो देश  की नाव भी डगमगाती रहेगी ! इस दिशा में प्रत्येक  व्यस्क को कार्यरत रहना होगा !
बच्चे का जीवन सफेद कागज जैसा होता है. उस पर व्यक्ति जैसे चाहे, वैसे चित्र उकेर सकता है. बच्चे को जिस दिशा में मोड़ना हो सरलता से मोड़ा जा सकता है. एक दृष्टि से यह मन्तव्य सही हो सकता है पर यह सर्वांगीण दृष्टिकोण नहीं है. क्योंकि हर बच्चा अपने साथ आनुवंशिकता लेकर आता है, गुणसूत्र (क्रोमोसोम) और संस्कारसूत्र (जीन्स) लेकर आता है. सामाजिक वातावरण भी उसके व्यक्तित्व पर प्रभाव डालता  है. इसका अर्थ यह हुआ कि संस्कार-निर्माण के बीज हर बच्चा अपने साथ लाता है. सामाजिक या पारिवारिक वातावरण में उसे ऐसे निमित्त मिलते हैं, जिनके आधार पर उसके संस्कार विकसित होते हैं.

शिक्षा का अंतिम लक्ष्य सुंदर चरित्र है। मनुष्य के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का पूर्ण और संतुलित विकास करता है। इसके अंतर्गत बच्चों का भावनात्मक और आध्यात्मिक विकास ही होता है।उच्च स्तरीय शिक्षा द्वारा बच्चों में पाँचों मानवीय मूल्यों सत्य, प्रेम, धर्म, अहिंसा और शांति का विकास होता है।आज की शिक्षा मनुष्य को विद्वान एवं कुशल डॉक्टर, इंजीनियर या अफसर तो बना देती है परंतु वह अच्छा चरित्रवान इंसान बने यह उसमें होने वाले संस्कारों पर निर्भर करता है।एक पक्षी को ऊँची उड़ान भरने के लिए दो सशक्त पंखों की आवश्यकता होती है उसी प्रकार मनुष्य को भी जीवन के उच्च लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दोनों प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता होती है। सांसारिक शिक्षा उसे जीविका देती है और आध्यात्मिक शिक्षा उसके जीवन को मूल्यवान बनाती है।

शिक्षा और संस्कार  एक दूसरे  से जुड़े हैं ! शिक्षा और संस्कार से ही देश का निर्माण हो सकता है। जब व्यक्ति में शिक्षा का विकास होगा, तब वह विकास की ओर आगे बढ़कर समाज के लिए कार्य करेगा।समाज के बदलाव के लिए व्यक्ति में अच्छे गुणों की आवश्यकता होती है और इसकी नीव बाल्यकाल में ही रख दी जानी चाहिए ! बच्चों  को तीन गुणों  से  प्रखर बनाएं जिससे वह समाज के प्रति अपनी शक्ति  व् अपना  कर्म  भी सकरात्मक रखेगे  ! ये गुण हैं  , ज्ञान  ,कर्म  व् श्रधा ,जब यह तीनों गुण व्यक्ति में होंगे, तो वह समाजसेवा में आगे बढ़ेगा। आज जो रास्ट्र व्यापी अनैतिक्वाद  प्रदूषण  हमारे  समाज को दूषित कर रहा है उसका मूलभूत कारण  बच्चों में संस्कारों का आभाव और इसका दोष वयस्कों पर आता है जो स्वयं भी अपने भारतीय अमूल्य संस्कारों के प्रति उदासीन होते जा रहे हैं ! बाहय  सभ्यता का आँख मूँद कर अनुसरण करना ही  हमे पतन की ओर  ले जा रहा है !

हम सभी को याद रखना होगा कि शब्दों का और भावों का निरिक्षण करते हुए दूसरों के मान सम्मान को प्रमुखता देना ही संस्कारवान होने के लक्षण होते है , जो हमे बच्चों को  घर ,स्कूल  और सामाजिक परवेश में सिखाते रहना होगा !रास्ट्र  निर्माण  की  दिशा  में  बच्चों  की अपेक्षा  वयस्कों  की  नैतिक  जिम्मेदारी अधिक है वे अपनी भूमिका को पूरी निष्ठा  से निबाहें और सुंदर परिवेश का निर्माण में सहभागी बने ! आयें बच्चों को गुरुकुल पद्धति  में  सिखाये  जाने  वाली  परम्पराओ से अवगत कराएं और उन्हें गुणवान ,ज्ञानवान और आदर्श  नागरिक  बनाने   में  अपने  दायत्व  को  भरपूर निबाहे !

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

बच्चों  में आत्मविश्वास

मनोबल व् सच्ची लगन से जीवन के हर संघर्ष में व्यक्ति कामयाब रहता है ! बच्चो में आत्मविश्वास  की कमी उन्हें हीन भावना से भर देती है ! आत्मविश्वास की कमी व्यक्तित्व के विकास में रूकावट है ! इसके आभाव में बच्चों  के अन्दर नकारात्मक  विचार भर देती है ! और यदि इन विचारों की बढोतरी हो जाये तो बच्चे दिशाहीनता के शिकार हो जाते हैं ! ऐसे में बच्चे अपनी काल्पनिक  दुनिया बना लेते हैं जिसमें उन्हें अपने भीतर कमियाँ  ही कमियाँ दिखाई देने लगती है ! फिर वे अपने को दुनिया की नजरों से दूर छुपाने की कोशिश में लग जाते हैं ! उनके मन :चिन्तन   पर हीन भावना प्रचुर मात्रा  में भर  जाती  है ! ऐसे में इन बच्चों को एकाकीपन अधिक लुभाता है ! जो बच्चे हीन भावना से ग्रसित होते हैं उनमें आत्मविश्वास की भारी  कमी दिखती है ! उनकी प्रत्येक  क्षेत्र  की  प्रगति में रूकावट आने लगती है ! साथ में उनका यह समझने लगना की वे जीवन में  कभी सफल नहीं हो पाएंगे ,उनके व्यक्तित्व में घातक  प्रहार करता है !
बच्चों को सिखाएं कि  वे अपने भीतर सकरात्मक विचारों का संचार करें ! अच्छी किताबें जिसमें  महान संतों की वाणी हो ,उन्हें पढने से उनके भीतर आत्मबल का संचार होगा जिससे उन्हें अपनी अपनी समस्यायों से दृढ़ता  से जूझना आ जायेगा ! बच्चों से कहें कि  वे अपने आस पास ध्यान  से  देखें कि  हर व्यक्ति के अंदर कुछ न कुछ कमी दिखने लगेगी  ! इस सृष्टी  की सम्पूर्णता केवल ईश्वर के पास है बाकि सभी किसी न किसी क्षेत्र में दूसरे  से अधिक सक्षम होते हैं ! उन्हें  उनके गुण  पहचानना सिखाएं  ताकि वे उसी दिशा  में अपनी योगिता अनुसार अपने भीतर की  उर्जा  का संचार कर सकें ! इससे उनके भीतर पनप रहे नकारात्मक चिन्तन से वे भी बचे रहेंगे साथ ही उनके परिवेश पर भी बुरा असर नहीं पड़ेगा ! बच्चे यह सीख लें की नकारात्मक चिंतन से पूरे समाज को हानि होती है ! कभी वे स्वय को दुसरे से कम न समझे ! यदि एक बच्चा कक्षा में पढाई में अव्वल  है तो दूसरा बच्चा  खेल में तो तीसरा कला में तो चौथा तकनीकी  क्षेत्र में ! हर बच्चे की बोद्धिक  क्षमता भी भिन्न होती है ! अभिभावक व् शिक्षक  बच्चों को गुमराह होने से बचा सकते हैं ! आज के दौर में शिक्षा प्रणाली भी इसी वजह से लचीली कर दी गयी है ! बच्चों के गुणों का आकलन मात्र पढाई से ही नहीं अपितु उनके सर्वागीण  विकास से किया जाना चाहिए !हर बच्चा के भीतर किसी न किसी क्षेत्र की प्रतिभा छुपी होती है ! बच्चों को स्वय का आकलन करना सिखाएं कि  उन्हें किन कारणों से हीन भावना आती है ! कक्षा में अनुतीर्ण होना / शिक्षकों द्वारा फटकार या प्रताड़ना / अभिभावकों द्वारा  किये जाने वाली तुलनात्मक आलोचना / परिवार में आपके दातित्व / खुद की कमी / लापरवाही  इत्यादि अन्य  कारण उन्हें स्वयम मनन करना होगा !
अभिभावक भी ध्यान दें कि  बच्चों का मन उस कोमल मिट्टी की भांति है जिसे आप यानि कुम्हार अपने इच्छा अनुरूप ढालता है ! आप अपने बच्चे के गुण दोष परखिये ,फिर उसी अनुसार उसे दिशा दें ! मारना / डांटना / आलोचना करने से आप बच्चे के विकास में स्वयम बाधा डालते हैं ! यदि आप उनका आत्मबल बढाने में अक्षम हैं तो कम से कम उन्हें  गहन  अन्धकार की ओर  न  धकेलें ! अपने बच्चे की रूचि पहचानिए  और उसे उस में व्यस्त होने दीजिये ! आप  स्वयं  देखेंगे की समय के साथ उसका आत्मविश्वास भी बढेगा और वह बाकि क्षेत्रों में स्वत : रूचि लेने लगेगा ! कभी बच्चों को डरायें धमकाएं नहीं  क्यूंकि अक्सर  इसके दुष्परिणाम भी आपको ही झेलने पड़ेंगे ! आत्मविश्वास की कमी से बच्चे कई बार गलत निर्णय ले बैठते हैं जिसकी वजह से बाद में आप जीवन भर  पछतायेंगे ! बच्चों के बीच संवाद बनाये रखें  यह सुझाव विशेषकर उन अभिभावकों के लिए महत्वपूर्ण है जो  अपने  कार्य  में व्यस्त रहते हैं ! उन्हें प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए  प्रेरित करें किन्तु उन्हें अपनी कठपुतली  न बनाएं ! बच्चों को प्रतिस्पर्धा के अनुकूल बनाएं पर उस पर इसका  बोझ  न डालें ! जब जब बच्चा कोई प्रशंसनीय कार्य करे तो उसकी तारीफ करें इससे उसमें आत्मविश्वास बढ़ेगा ! बच्चो के सामने आप अपना आदर्श स्थापित करें ताकि वह अपनी दिक्कते  स्वय आपके सामने रखना सीख लें ! कभी भी भूल से नकरात्मक शब्दों  का इस्तेमाल  न करें ! अच्छे कुशल माली के समान – उन्हें स्वस्थ पोषण दें। माली पौधे को खाद पानी देता है। खर पतवार को पास उगने नहीं देता। धूप, अतिवृष्टि, अनावृष्टि से बचाता है। यदि डालियां इधर-उधर बढ़ रही हैं तो सुंदर रूप देने के लिए काट छांट भी करता है।अभिभावक भी बच्चों को स्वस्थ साहित्य पढ़ने को दें, बुराई से बचाएं, गंदे व्यवहार की निंदा करते हुए उन्हें उनसे दूर रखें और सबसे अहम बच्चों का मनोविज्ञान समझें और अपना भी।
शिक्षकगण  की भूमिका  भी सकरात्मक होनी चाहिए ! शिक्षक केवल किसी विद्यार्थी को अपने अद्यापन क्षेत्र में सम्पूर्ण बनाने की चेष्ठा नहीं करता अपितु उनके व्यक्तित्व के विकास में उनकी नैतिक भागीदारी होती है ! उन्हें उनकी योग्यता फ्च्न्ने में मदद करें ! नन्हे बीजो को सुंदर फलदार वृक्ष में बदलना जो मानवतावाद  से भरपूर हो ,इसकी जिम्मेदार भी शिक्षक ही होते हैं ! सब बच्चों को समान दृष्टि से देखें, निश्छल व्यवहार करें व समय का पालन करें – तो यह गुण बच्चों में स्वत: आ जाएंगे। वे भी समय पर अपना कार्य पूर्ण कर के दिखाएंगे व सबके साथ मित्रवत व्यवहार करेंगे।उनके अभिभावकों के सामने  उनकी निंदा न करके उनकी उन अच्छाईयों को पहले सामने  लायें  जो उनके विकास में आधारशिला का कार्य करता है ! उसके पश्चात यदि उनकी कमजोरियां सामने लायी जाएँगी तो वे स्वयं अपने को सुधरने का प्रयत्न करेंगे ! उनकी हर विषय में रूचि जागृत करने हेतु उन्हें प्रयोगिक कार्यशाला द्वारा  अध्यन कराएं ! इससे वह मात्र किताबी ज्ञान न लेकर वास्तविक जगत का सामना करने लायक हो पायेगा ! नैतिक  शिक्षा  की कक्षा  में आत्मविश्वास बढाने  वाली कहानियों द्वारा मार्गदर्शन करें ! समाज  कल्याण  की दिशा में प्रेरित करने वाले  अभियान से बच्चों को जोड़े , उन्हें  मात्र किताबी आदर्श न सिखाकर वास्तविक जगत के  प्रतिस्ठित लोगो से मिलवाएं जिससे उनमें भी आत्मबल का संचार हो और वे भी जीवन में कुछ सीखने व् बनने के लिए लालायित रहे ! परीक्षा के दिनों में उनके आत्मबल को डिगने न दें ! लगातार बच्चे के अभिभावक के सम्पर्क में रहे ! मनोचिकित्सक डा. क्षितिज विमल जी का सुझाव  है कि अध्यापक इस बात का जरूर ध्यान दें कि जो वे बच्चों को पढ़ा रहे हैं, उसके प्रति बच्चे संतुष्ट दिखे। क्योंकि अगर बच्चे संतुष्ट नहीं होंगे तो मानसिक तनाव बढ़ने के आसार होते हैं। अभिभावक भी इस बात पर ध्यान दें कि बच्चों पर ज्यादा प्रेशर न डालें और गलती से भी उनमें हीन भावना पैदा न होने पाए।
अंत में हम  सबकी नैतिक जिम्मेदारी है की हम अपनी वाटिका के सुगन्धित पुष्प  की सुगंधी को चहु दिशा में फ़ैलाने हेतु उनकी शक्ति बने ! बच्चों को प्रतिभावान बनाएं ! मैरी  क्यूरी के अनुसार ,"हम में से जीवन किसी के लिए भी सरल नहीं है. लेकिन इससे क्या? हम में अडिगता होनी चाहिए तथा इससे भी अधिक अपने में विश्वास होना चाहिए. हमें यह विश्वास होना चाहिए कि हम सभी में कुछ न कुछ विशेषता है तथा इसे अवश्य ही प्राप्त किया जाना चाहिए"

गुरुवार, 24 जनवरी 2013

इलेक्ट्रोनिक  मीडिया  का बच्चो  पर प्रभाव 

आज  के आधुनिक  समाज में  इलेक्ट्रोनिक  मीडिया  आसानी से पूरी दुनिया हमारी मुट्ठी में कैद कर रही है ! हमारे बच्चे  भी  इसका भरपूर उपभोग कर रहे हैं ! स्कूल जाने वाले मासूम बच्चे और युवा  हिंसा , नशाखोरी ,आत्महत्या जैसे  अवसाद युक्त  समस्याओं   के भंवरजाल में फंसते जा रहे हैं ! आज का बच्चा तकनीकी और आधुनिक इलेक्ट्रोनिक उपकरण को इस्तेमाल करने में महारत हासिल कर रहा है ! समाजशास्त्रियों व् मनोवैज्ञानिको  के अनुसार आधुनिक जीवन शैली के कारण बढ़ता एकाकीपन संयुक्त परिवार का बिखरना और अभिभावकों के पास समय का आभाव  बच्चों को दिशा विहीन बनाता जा रहा है !

अभिभावक  अपने बच्चों  को घंटो टी .वी  और कम्पयूटर  के सामने बैठे रहने की अनुमति  देकर उन्हें कैंसर की ओर  धकेल रहे हैं ! बच्चों में मोटापे , हृदय  रोग , डायबटीज  जैसी बीमारियाँ बढ़ रही हैं ! साथ  में  उदासीन  जीवन शैली की  ओर  बढ़ता  रुझान  भी  दृष्टीगोचर  हो  रहा है ! निरंतर इन उपकरणों  के आगे बैठने से चर्बी से ग्रसित बच्चे कैंसर  विशेषकर चर्म  कैंसर के शिकार हो रहे हैं ! इस प्रतिस्पर्धा के युग में उचित माहौल न मिलने की वजह से बच्चों में आत्मविश्वास घटा है ! अभिभावक भी धनौपार्जन की दौड़ में अपने  बच्चो की मौलिक आवश्यकताओं  की बस खानापूर्ति  कर स्वय को जिम्मेदारी  से मुक्त समझने की भूल कर रहे हैं ! यही वजह है कि  बच्चों ने अपने को दूसरे  आधारों में  उलझाना आरम्भ कर दिया है ! 

जीवन में सफलता और सुख वही  व्यक्ति प्राप्त करता है जो निर्धारित लक्ष्य प्राप्त करने के लिए योजनाबद्ध  तरीके से कार्य करता है ! बच्चों को उनकी रुचियों  के अनुरूप स्वयं को ढालने देना चाहिए  तभी वे अपनी उर्जा का पूर्णरूप से सदुपयोग कर पायेगा और उसका लाभ उठा पायेगा ! उसे अपने आसपास की परिस्तिथियों को झेलने की क्षमता आनी चाहिए ! उन्हें उनके कर्तव्य बोध पर प्रेरित करने के लिए उनका रूझान  अच्छी पुस्तकें पढने की ओर  बढ़ाना चाहिए ! आज के आपाधापी और धन संग्रह की ओर  इतना आकर्षण  है कि  उस पर मानवीय  मूल्य  दाँव  पर लग गए हैं ! मानव जीवन  के प्रतिमान भी बदल रहे हैं जिसका घातक प्रभाव परिवार पर पड़ रहा है फलस्वरूप समाज प्रभावित होना भी सुनिश्चित है ! 

अभिभावक को बच्चों में संस्कारों  की नीव की सोच विलुप्त होती जा रही है ! बस बच्चों को छोटी उम्र से ही धनोर्पाजन का माध्यम  समझा जाने लगा है और नैतिक मूल्यों के स्थान पर फूहड़ संस्कृति को अपनाकर  अभिमानी हो रहे हैं !  संस्कार विहीन वातावरण में पले  बच्चों का रूझान  भी अनुशाशनहीनता  ,अकर्मण्य  और सुख सुविधाभोगी बनते जा रहे हैं ! संयुक्त परिवारों के विघटन से सीधा असर बच्चों में नैतिक मूल्यों की कमी के रूप में सामने आई ! पहले बड़े बूढों  की छत्र छाया में बच्चे हितोपदेश  कहानियों से नैतिक मुल्य स्वत : ही ग्रहण कर लेते थे और आपसी सम्बन्धों में मिठास झलकती थी किन्तु एकल परिवार में यह एक अभिशाप ही है कि  बच्चे का लगाव अपने माता  पिता से रहता है वह भी तब तक जब तक वह स्वय  कमाने  के काबिल नही होता बाद में जैसे उसे प्राप्त होता है वह वैसे  ही लौटा देता है ! हम अभिवाहक  अपने बच्चों को अपने महत्वकांक्षाओं की पूर्ती में उसकी नैतिक अवहेलना कर रहे हैं जिसके फलस्वरूप वे भी संस्कारों को मात्र स्कूली शिक्षा  का एक विषय समझकर नजर अंदाज कर देते हैं ! 

वर्तमान परिदृश्य  में अभिभावक अपने बच्चों की नित्य दिनचर्या  से चिंतित होते जा रहे हैं !  इसके लिए यह बहुत सोचनीय  हो गया है कि  बच्चों को अच्छे लक्ष्यों की ओर  कैसे  प्रेरित करें ! अभिभावक बच्चों के साथ कम्युनिकेशन  बनाकर रखें ! वे कभी किसी उलझन में न रहे ! कोई परेशानी पर उसे ह्तोसाहित  न  करें ! स्वय  को उसको कोसने के  बजाय  समाधान ढूँढने  का  पर्यास करें ! धैर्य से उसे उसकी गलतियाँ  दिखाएं और फिर उसका मार्गदर्शन करें ! उसके टी . वी . देखने का समय सुनिश्चित करें  और उसे कुछ खास ज्ञानवर्धक चैनलों  की ओर  प्रेरित करें ! उसको तनाव देने के बजाय  उसके  मन को  प्रफुलित  रखेंगे तो वह स्वय  घर परिवार की ओर  रूझान  बढेगा ! उनमें  किसी  प्रकार  के  नकारत्मक  भाव न पनपने दें ! वस्तुत : बच्चों के सामान्य व्यवहार से उनके व्यक्तित्व पर गहरा  असर पड़ता है जो अभिभावक और अन्य  पारिवारिक सदस्यों  की गतिविधि  के अनुरूप ढलती चली जाती है ! 

बच्चों को आधुनिक मीडिया  के  दुस्प्रभाव से बचाने  के लिए अभिभावकों की न केवल नैतिक जिम्मेदारी होती  है बल्कि  उन्हें स्वय अपने लिए भी मापदंड तय  करने होंगे ! बच्चों पर दबाब और उससे जुड़ने से मना करने से पहले समय सारिणी निश्चित किया जाना चाहिए ! उनकी महत्वपूर्ण गतिविधियों पर नज़र रखें , नियम बनाएं और उसे ईनाम  से जोडें ! अपने अभिमान की ज्वाला से उनके कोमल मन को ठेस न पहुंचाएं  , उन पर अपने कड़े नियम थोपने से बचें  ! इन्टरनेट , मोबाइल  और टी .वी  सबके सकरात्मक व् नकारात्मक प्रभाव होते हैं ! बच्चों के लिए  उचित और क्या अनुचित इसको अभिभावक ही सुनिश्चित कर सकते हैं ! उन्हें अध्यन  की ओर  इस सुविधा का इस्तेमाल सिखाएं ,जानकारी बढे किन्तु सही दिशा  की  ओर ! बच्चों को अच्छे क्रिया कलापों की ओर  प्रेरित करें ! उनके के साथ मैत्री भाव रखते हुए उनके साथ समय बिताएं ! उनके मन मस्तिष्क पर आप एक खौफ नहीं मित्र के रूप में दिखें ताकि वह बाहय  दुनिया की ओर  न मुड़े !

 आज जरुरत हैं नैतिक मूल्यधारा  का पुनर्निर्माण  ताकि हमारे  बाल गोपाल सुंदर ,स्वस्थ ,और चिंतनशील व्यक्तित्व वाले हो , जो खुशहाल भारत के निर्माता बनेंगे ! बच्चों को यह शिक्षा दी जानी चाहिए कि  सम्पूर्ण  रास्ट्र की बागडोर उस पर है ! श्रेष्ठ  विचार बच्चों के व्यक्तित्व निखारते हैं तो दूषित आचरण उनका पूरा जीवन नस्ट करता है !  शिक्षकों  की  भी  भूमिका है कि  वे अपने शिष्यों को पतन के मार्गी न बनाने दें ! उनको कुटिलता और शोषण करने की प्रवृति से बचाएँ !
 इसके अलावा सरकार  का भी दायित्व है कि वह कार्यक्रमों पर तीखी दृष्टी बनाये रखे कि  किस कार्यक्रम  की क्या सामग्री परोसी जा रही है ! जब परिवार के सदस्य  सीरिअल्स  को देखने में खुद को आधुनिक समझते हैं तो  फिर आप बच्चो पर अपने नियम कैसे थोप सकते हैं ! . जितने भी सास बहु से केन्द्रित सीरियल हैं उसमें समाजिक परिवेश   का विघटन स्पष्ठ  दिख रहा है ! आधुनिकता के नाम पर गलत चीज़ों को आसानी से उपलब्ध करवाने से बचना होगा ! इसके लिए सरकार  द्वारा कड़े नियम लागु करवाने की आवश्यकता है साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है की समाज का प्रत्येक जागरूक सदस्य अपनी भूमिका सही ढंग से निबाह रहा है या नहीं ! 
हम सभी को याद  रखना होगा कि " आदर्श, अनुशासन, मर्यादा, परिश्रम, ईमानदारी तथा उच्च मानवीय मूल्यों के बिना किसी का जीवन महान नहीं बन सकता है" ~ स्वामी विवेकानंद

बुधवार, 16 जनवरी 2013

देश का भविष्य : ख़ुशी 

आज की बढती  प्रतिस्पर्धा युग का विषाद बन रही है ,अवसाद ! जीवन के विभिन्न आयामों से जूझ रहे तकरीबन 80% लोग अवसाद से ग्रसित हैं ! सामजिक , राजनितिक  , आर्थिक व् व्यवसायिक क्षेत्र में तालमेल के आभाव में व्यक्ति की आंतरिक ख़ुशी प्रभावित  हुयी है ! इसका सीधे सीधे प्रभाव उसके परिवार विशेषकर बच्चों पर पड़ता  है ! चिडचिडापन , अध्याधिक चिंतनशील रहना , दब्बूपन अथवा झगडालू प्रवृति ने हंसी ख़ुशी के वातावरण  को दीमक  की तरह चाटना आरम्भ कर दिया है ! इसका प्रतिकूल असर सामाजिक परिपेक्ष में आज दिख रहा है जो भविष्य में विकराल रूप धारण कर लेगी ! आज हम जानने की चेष्ठा  करेंगे आखिर ख़ुशी क्या होती है और कहाँ से प्राप्त की जा सकती है !
 हर व्यक्ति  का अपने जीवन को देखने का नजरिया अलग होता है ! घुमकड़ी , विभिन्न स्वादों का लुफ्त लेना , अपने शौक पूरे करना ,, पुस्तकें पढना , विभिन्न कलाओं  से जुड़ना इत्यादि विभिन्न माध्यम दृष्टीगोचर  होते हैं ! दुनिया में बड़े पैमाने  में  मनोवैज्ञानी  ने खुशियों के पैमाने ढूँढने का प्रयास कर रहे हैं ! जिससे वे लोगों को अवसादों से बाहर ला सकें  ! ख़ुशी कोई खरीदने या बेचने वाली वास्तु नहीं है ! यह तो आंतरिक भावनात्मक दर्पण  है जो लोगों में भिन्नता लिए हुए होती है !जिसमें धन , व्यवसायिक सुरक्षा , सामजिक सुरक्षा , सच्ची मित्रताएं , घरेलु सुरक्षा एवं सुरक्षित भविष्य शामिल हैं ! 

प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तु ने कहा था कि  ख़ुशी जीवन का अर्थ और उद्देश्य  दोनों हैं ! उनके अनुसार लोग भौतिक  सुखो में ख़ुशी के आयाम ढूँढने में मग्न  रहते हैं ! किन्तु मंजिल हासिल होने के बाद भी खुश नहीं दिखते  और जब निराशाएं घेरने लगती हैं तो अपने आपको दोषी मानते हुए कुंठाओं से ग्रसित कर  लेते हैं ! फिर आरम्भ होता है डाक्टरों  के यहाँ चक्कर काटने का अंतहीन सिलसिला या फिर किसी आध्यात्मिक गुरुओं की तलाश ! अपने व्यक्तिगत जीवन को आंतरिक व् बाह्य आवश्यकताओं के आपूर्ति के आभाव में अवसादित जीवन जीते हैं ! 

महात्मा बुद्ध  के अनुसार जिस तरह  एक मोमबती से हजारों मोमबतियां जलाई जासकती हैं  और उस मोमबती की उम्र कम नहीं होती इसी प्रकार ख़ुशी भी बांटने से कम नहीं होती ! यदि हम ऐसी सीख को जीवन में अपनाएं तो यकीनन हमारी ऐसी उन्नति होती  चली जाएगी कि  हम ख़ुशी के ऊँचे  शिखर पर पहुँच जायेंगे ! संसार  के प्रलोभन हमे भटकाते हैं किन्तु अपने भविष्य निर्माण  की दिशा में हमे  अपने आध्यात्मिक  विकास की ओर  भी चिंतनशील रहना चाहिए ! मन  हमारा तभी प्रसन्न  रह पायेगा जब हम जीवन की विषम परिस्तिथि से न घबराएं अपितु उन्हें आत्मसात करते चले जाएँ !

अपनी निंदा स्तुति , हानि लाभ , मान अपमान , यश अपयश  की परिस्तिथियों में समान व् आशावादी  बने रहना चाहिए ! भौतिक आनन्द के स्थान पर आत्मिक आनन्द की ओर अग्रसर  रहना चाहिए !सत्स्न्गीत , सत्साहित्य  सत्संग और समभाव ही हमे ख़ुशी देता है ! मिलनसार , सहनशील , संवेदनशील व्यक्ति हर परिस्तिथियों में अपने  को खुश रखने में सक्षम रहता है ! सत्कर्म ,सतविचार  व् अछे मित्र  को जीवन की आधारशिला बनानी चाहिए ! सच्चे लग्न से किया गया कार्य ही सच्ची ख़ुशी देता है ! ह्रदय की पवित्रता , मृदु वाणी  मनुष्य को प्रसन्नचित  रखती है और उसका कल्याण करती है !

अभिभावक जब माता पिता का दायित्व निबाहते हैं तो सर्वप्रथम अपने बच्चे के सर्वांगीण  विकास हेतु उसके अंतर्मन  के प्रत्येक पहलूओं  का उन्हें ज्ञान रखना चाहिए !उनकी जिन्दगी को बेहतरीन दिशा देने के लिए उनमें अच्छे संस्कार भरकर उनके चरित्र का निर्माण करेंगे तो घर परिवार ,समाज  में खुशियों  की भार आएगी ! बच्चे देश के अमूल्य निधि हैं ! इन्हें सुसंस्कृत बनाने की नैतिक  जिम्मेदारी अभिभावक व् शिक्षकों पर होता है ! उन्हें अकेलेपन से बचाना चाहिए ! उनकी गतिविधियों पर नजर रखे ! भटकाव की स्तिथि में  दण्डित करने के पैमाने से बचकर व्यवहारिकता से समस्यायों को सुलझाएं  ! 16 वर्ष की उम्र  के बाद बच्चों के मस्तिष्क  की गतिविधियाँ स्वयं को परिपक्वता की दिशा देने लगती है यही समय है जिसमें बच्चे दिशाविहीन होकर विभिन्न  प्रकार  नशे के शिकार होने लगते हैं ! नासमझी में ये गलत दिशा में खुशियाँ तलाशने लगते  हैं!

खुशियों को इच्छाओं का प्रतिबिम्ब माना जाता है ! जैसे जैसे आपकी इच्छाएं पूर्ण होती जाती हैं वैसे वैसे आपको ख़ुशी मिलती जाती हैं ! ख़ुशी के मायने व्यक्ति के चिंतनशैली पर निर्भर करती है जो प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न होती है ! ख़ुशी यदि सकारात्मक है तो बच्चे के विकास में बढ़ोतरी करती है अन्यथा पतन का कारक भी बनती है ! ख़ुशी ऐसी भावना जो मन के सारे अवसादों को हल्का कर  देती है और होठों  पर मुस्कान ले आती है ! हर व्यक्ति के खुशियों के मायनों में उपभोग की वस्तुएं , शौकिए  कार्य , पारिवारिक समारोह , अपनी उपलब्धियां  और आध्यात्म  शामिल होते जिसमें परिस्तिथि के अनुसार इनके प्रतिशत घटे बढ़ते रहते हैं ! 

 छोटे बच्चे सरल होते हैं , इनकी खुशियाँ इनके आत्मसम्मान पर टिकी  होती हैं ! कोमल हृदय  के कारण  इनका आत्मबल शीघ्र  क्षीण होने लगता है इसीलिए अभिभावकों को अपने बच्चो से धैर्य  से काम लेना चाहिए ,अधिक अनुशाशन युक्त दबाब बच्चो के मनोबल का हनन करते हैं जिसका प्रतिरूप अभिभावक उनके युवा अवस्था में सभी भुगतते हैं क्यूंकि शनै शनै  बाल कोमल मन अवसादित होकर भविष्य में अनैतिक क्रियाओं में क्रियाशील होता चला जाता हैं ,फिर उन्हें उनसे छीनी  गयी खुशियाँ लौटना नामुमकिन होता चला जाता है !  समाज में बढ़ते  अपराध का मुख्य कारण  यह भी है !  आज संस्कार से निमित समाज की अत्यंत आवश्यकता है ! इसमें प्रत्येक  व्यस्क को  समाज निर्माण के प्रति  नैतिक जिम्मेदारी निबाहनी होगी तभी हर ह्रदय में खुशियों की  बहार दिखेगी !

शुक्रवार, 11 जनवरी 2013



माँ में भेद न कर प्राणी

2, September 2012

MOTHER ONLY
माँ कौन है ...? केवल नौ दुर्गे जो आपकी यादों में नवरात्रों में चली आती हैं ! माँ के नौ रूप जो  हम सभी के दृष्टीकोण में सैदेव रहने चाहिए ! धरती ,अन्नपूर्णा , गौ , गंगा ,दुर्गा ,जन्मदायित्री, कर्मदयित्री , व् बूढी काया !

प्रत्येक घर -घर  में देवी के नौ स्वरूपों की विधि विधान से पूज कर व्यक्ति अपने आपको महान देवी का उपासक मानने लगता है ! इन नौ दिनों में व्यक्ति के व्यक्तित्व में एक अलग निखार दिखने को मिलता है ! वर्ष में दो बार आने वाले इन नवरात्रों  की धूम गली -गली, नगर -नगर  देखने को मिलती हैं !इस समय तो कन्याओं की घर -घर  में तलाश होती है और फिर झूठ , आडम्बर और भगती  के परचम लहराने में प्रत्येक  घर आगे रहता है ! विडम्बना यह की जिस नारी के नौ स्वरूपों का जीवन भर तिरस्कार किया जाता है वे इन नौ दिनों में इतनी पूजनीय क्यों हो जाती है ?
आप सभी के दृष्टीकोण में शायद देवी के नौ स्वरुप धार्मिक महत्व के होंगे किन्तु मेरे लिए माँ के नौ स्वरुप हैं -दुर्गा माँ , धरती माँ ,अन्नपूर्णा माँ , गंगा माँ ,गौ माँ , जन्मदायत्री  ,कर्मदायित्री अर्थात शिक्षिका ,गुरु माँ अर्थात टेरेसा माँ जैसी समाज सेविका ,और सर्वोपरि बुढ़ापे की दहलीज  पर खड़ी बूढी माँ सबसे गूढ़ ज्ञानि ! यदि हमारा जीवन इनके लिए पूर्णतया समर्पित हो जाये तो असल में हम सभी के व्रत सफल हो जायेंगे ! व्रत का परम  ध्येय अपनी आत्मा की शुद्धी कर उसे परमात्मा में लीं करना किन्तु हम जाते हैं तीर्थाघटन पर ..किन्तु किसलिए ? दुर्गा माँ के भक्तो की संख्या में इजाफा तो हो रहा है तो क्या पापियों की संख्या घट रही है?

सर्वप्रथम दुर्गा माँ , इसके विषय  में तो सारा जगत जानता है और  उसकी मौजूदगी का अहसास हम सभी के भीतर विद्यमान है !हर कार्य के प्रारंभ में विशेषकर विद्यार्थी या शिक्षण  क्षेत्र  में माँ दुर्गा की स्तुति  का महत्वपूर्ण स्थान है !
वह जीवन वही अर्पण है  और हम सभी शक्ति भी ,प्रेरणा भी ! किन्तु माँ ने कभी नहीं सिखाया की हम अपने स्वार्थ के खातिर जीव हत्या करो ,कन्या का तिरस्कार करो या फिर कन्या  भ्रूण हत्या को बढ़ावा दो !
दुसरे स्थान पर हैं  धरती माँ जिसमे हमने जन्म लिया और पले बढे उसके प्रति हमारी नैतिक जिम्मेंदारी की शिक्षा कौन देगा ? प्राकृतिक संसाधनों का हनन कर उसके संतुलन को बिगाड कर शायद हम धरती माँ के प्रति  अपना फ़र्ज़ भूल चुके हैं !धरती  के प्रति प्रेम भाव पुन जागृत करना अत्यंत जरुरी है ,नहीं तो ध्यान रखना होगा उसके कोप का भाजन बनना होगा ! इस माँ  ने अपने प्रयासों से अनेको उपभोग की वस्तुएं हमे प्रदान की हैं ,देखो इसके आँचल मैं ममता रूपी कितनी संजीवनिया छुपी हैं ,सूखे की स्तिथि हो या बाड की देखो धरती फिर भी हमारा दुःख समझती है ! इस माँ के उपकार को हमे न कभी भूलना चाहिए !
तीसरे स्थान पर अन्नपूर्णा माँ ! भोजन के प्रति अभिरुचि व् प्रेम तो शायद तो शायद युवा पीढ़ी भूल चुकी है ! विदेशी भोजन के प्रति अभिरुचि में प्रेम व् संस्कार की कमी तो है ही अपितु अनगिनत  बिमारियों की जन्मदाय्त्री  भी !और उसी भोजन को अपनाकर  हम अपनी रसोई को नैतिकहीन बनाते जा रहे हैं !जैसे खाएं अन्न वेसे होए मन ..ये तो हम सभी जानते हैं !चूल्हे की पूजा ,अग्नि को भोग लगाना ,तत्पश्चात  स्वयं सात्विक भोजन ग्रहण करना ,तो अब रुढ़िवादी  परम्पराओं  में आँका जाना  आज की शान व् पहचान हैं !जब  आप हम अपनी अन्नपूर्णा माँ का सम्मान नहीं करेंगे ! थाली में परोसा गया भोजन का सम्मान नहीं करेंगे  तो बच्चो को अच्छे संस्कार कहाँ से प्राप्त होंगे !
चतुर्थ स्थान पर आती है गौ माँ ,जिनके प्रत्येक  अंग में ब्रह्मांड समाया है किन्तु उसकी पूजा तो दूर ,सड़क पर उसको जख्मी पड़ा देख किसी का कलेजा नहीं पसीजता  तो उसकी उपासना तो मील का पत्थर है ! धन्य हैं वो लोग जो गौ की पूजा अपना धर्म समझते हैं !
पंचम स्थान पर हैं गंगा माँ  जो सदियों से हमारे कर्मो का भार सहन करके फिर  भी निर्मल बन हमे ढेरों आशीष  देती हैं ! देश की इस अमृतधारा  को हमने अपने स्वार्थ के चलते इतना प्रताड़ित किया है की आज वह अपना मार्ग बदलने पर विवश  है ! माँ करुणामयी तो होती है किन्तु जब उसका क्रोध जगता है तो संसार को उसका परिणाम तो भुगतना पड़ेगा !हिम ग्लेश्यर में  बढ़ते कूड़े के अनुपात ,हमारे द्वारा किया जा रहा जल प्रदूषण सब हमारी इस पावन धारा  पर भारी पड़ रही है !
छठे स्थान  पर अपने जनम देने वाली माँ हैं जो हमे इस संसार में लायी ,उसका मान रखना और उसके अभिमान की रक्षा करना हमारा दायित्व  है किन्तु विडंबना देखिये ,आज युवा माँ को माँ कहने में अपमानित महसूस करते हैं ! उन्हें तो मम्मी  शब्द इतना प्यारा लगता है की वे तो उसे जीते जी कब्र में पहुंचा देते हैं !
सातवें  स्थान पर कर्मदायिनी अर्थान शिक्षित करने वाली  जो  माँ /पिता तुल्य स्थान पर होती है  !विद्यालय  से विश्व विद्यालय  तक शिक्षिका  का स्थान भी देव तुल्य होता है !और हमे अपने आचरण से उनके मार्ग में खुशियाँ प्रवाहित करना चाहिए !युवा पीढ़ी चरण  स्पर्श करने में अपमानित महसूस करती है ! उन्हें यह ज्ञात नही की शिक्षक के चरणों में साक्षात् सरस्वती माँ विराजमान है !
आठवें स्थान पर सत्संग की और प्रेरित करने वाली वह साध्वी जिसका जीवन समाज कल्याण हेतु समर्पित होता है  जिस तरह माँ  टरेसा / उन जैसे अनेको जिनकी संगती  करने से हमारे आचरण में सुधार तो आता है साथ ही समाज के प्रति हमारे दायत्व की ओर हमे प्रेरित करती है ! हमे अपने अपने तरीके से  अपने को सत्संग की ओर  प्रेरित करना चाहिय !
नवे  स्थान पर मेरे दृष्टी मैं आपके हमारे घर  मैं वह बुजुर्ग जिन्हें हमारे  द्वारा सर्वाधिक पूजनीय होनी चाहिय क्योंकि जर्जरावस्था  में यह ज्योतिर्पुंज  है और उसका सम्मान हमारा मान होना चाहिय ! किन्तु वास्तविकता यह है की उन्हें हम अपने स्वार्थ  व्  उपयोगिता की दृष्टी से देखते हैं ! यदि हमे अपने उपर जिम्मेदारी सी दिखती है तो हम उन्हें प्रताड़ित करने से नहीं चूकते !उसकी जीवन संध्या हमारी  लिय  बोझ क्यूँ बन जाती है ,जब उसने  सारी उम्र हमारी भलाई में न जाने कितने आंसू पिए होंगे ....क्या फिर से मरण तक आंसू  बहाने के लिए !
मेरे दृष्टीकोण  में आपके जीवन की नौ  देवियाँ आपके अपने सामने हैं !इनका तिरस्कार कर मन्दिरों में घंटो और नगाडो  को बजाकर कोई लाभ न होगा ! नवरात्रों नही, नव देवियों का अभियान छेडिये -घर घर ,नगर -२  ,पूरे देश में ! यदि यह संभव हो गया तो माँ दुर्गा के नौ स्वरुप आपको  हर्षित  कर देंगे!  ! आयें प्रकृति के साथ चलें ,उसके अपने बनकर !!

बुधवार, 9 जनवरी 2013



 विद्यार्थियों में आत्महत्या का बढ़ता प्रचलन

प्रसिद्ध चिंतक अरस्तु ने कहा था कि आप मुझे सौ अच्छी माताएं दें तो मैं तुम्हे एक अच्छा रास्ट्र दूंगा ! माँ के हाथो में राष्ट्र निर्माण की कुंजी होती है किन्तु आज ऐसी माताओं व् सोच की कमी सी महसूस हो रही है ! जीवन स्तर बढने के साथ -साथ , भौतिक प्रतिस्पर्धा भी अपने चरम पर है जिसका दुस्प्रभाव तनाव युक्त जीवनशैली से आत्महत्या का बढ़ता चलन देखने में आ रहा है ! आज के समाज में आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम एक अभिशाप बन गया है ! बड़े दुःख का विषय है कि आज विद्यार्थीयों में लग्न व् मेहनत से विद्या ग्रहण करने की प्रवृति लुप्त होती जा रही है वे जीवन के हर क्षेत्र में शार्टकट मार्ग अपनाना चाहते हैं और असफल रहने पर आत्महत्या जैसे दुस्साहसी कदम उठा लेते है !आजकल अभिभावक भी स्वयं बच्चों पर पढाई और करिएर का अनावश्यक दबाब बनाते हैं ! वे ये समझना ही नहीं चाहते कि प्रत्येक बच्चे की बौद्धिक क्षमता भिन्न होती है और जिसके चलते हर छात्र कक्षा में प्रथम नहीं आ सकता ! बाल्यकाल से ही बच्चो को यह शिक्षा दी जानी चाहिए कि असफलता ही सफलता की सबसे बड़ी कूंजी है ! यदि बच्चा किसी वजह से असफल होता है तो वह पारिवारिक एवं सामाजिक उल्हाना के भय से आत्महत्या को सुलभ मान लेता है ! जिसके बाद वे अपने परिवार और समाज पर प्रश्नचिन्ह लगा जाते हैं !बच्चों में आत्मविश्वास की कमी भी एक बहुत बड़ा कारक है !

आज खुशहाली के मायने बदल रहे हैं अभिभावक अपने बच्चों को हर क्षेत्र में अव्वल देखने व् समाजिक दिखावे के चलते उन्हें मार्ग से भटका रहे हैं ! एक प्रतिशत के लिए यह मान लिया जाये कि वे बच्चे कुंठा ग्रस्त होते हैं जिन परिवारों में शिक्षा का आभाव होता है किन्तु वास्तविकता यह है की गरीब बच्चे फिर भी संघर्षपूर्ण जीवन में मेहनत व् हौसले के बलबूते अपनी मंजिल पा ही लेते हैं ! किन्तु अक्सर धन वैभव से भरे घरों में अधिक तनाव का माहौल होता है और एक दूसरे से अधिक अपेक्षाएं रखी जाती हैं ! साधन सम्पन्न होने के बाबजूद युवा पीढ़ी में आत्महत्या के आंकड़े बढ़ते जा रहे हैं !

मनोचिकित्सक का मानना है कि खुदखुशी कोई मानसिक बीमारी नहीं बल्कि मानसिक तनाव व् दबाब का प्रभाव होता है !असंतोष इसका मुख्य कारण है ! कुछ वर्षों से दस से बाईस वर्ष के बच्चे आत्महत्या को अपना रहे हैं ! परीक्षाओं का दबाब ,सहपाठियों द्वारा अपमान का भय , अध्यापकगण की लताड़ या व्यंग न बर्दास्त करने की क्षमता उन्हें इस मार्ग की ओर धकेल रहा है ! शहरों की भागदौड़ भरी जिन्दगी में बच्चे वक़्त से पहले परिपक्व हो रहे हैं जिसके फलस्वरूप वे अपने निर्णय स्वयं लेना चाहते हैं और अपने द्वारा लिए गए निर्णयों के अनुसार आशातीत परिणाम प्राप्त न होने पर आत्महत्या का निर्णय ले लेते हैं ! यही नहीं माता पिता की आकांक्षाओ की पूर्ति का दबाब वे अपनी जिन्दगी पर न सह पाने की वजह और सही निर्णय न लेने की स्तिथि में उन्हें यह मार्ग सुगम दिखता है !

आज के सन्दर्भ में दोष उन अभिवाहकों का है जो अपने बच्चों की प्रदर्शनी लगाना चाहते हैं मानो वह भी आज की उपभोगतावादी संस्कृति के चलते एक वस्तु हो और उन्हें जीवन के हर क्षेत्र के लिए अधिक से अधिक मूल्यवान बनाया जा सके यही कारण है की आज परिवार अपने मौलिक स्वरुप से भटक कर आधुनिकता की बलिवेदी पर होम हो रहे हैं ! भावनाओं व् संवेदनाओं से शून्य होते पारिवारिक रिश्ते कलुषित समाज की रचना कर रहे हैं !अभिभावकों को समझना होगा की बच्चे मशीन या रोबर्ट नहीं हैं ! बच्चों को बचपन से अच्छे संस्कार दिए जाने चाहिए ताकि वे अपनी मंजिल पर अपनी खुद चुने किन्तु आत्मविश्वास न खोएं ! बच्चों को सहनशील , धैर्यवान , निर्भिक , निर्मल , निश्चल बनाना है तो स्वत : अपने स्वभाव परिवर्तित करें ! बाल सुलभ मन में चरित्र का प्रभाव पड़ता है ! शिक्षा का नहीं आचरण की सभ्यता बाल सुलभ मन पर अधिक प्रभाव पढ़ता है ! शिक्षा का अंतिम लक्ष्य सुंदर चरित्र है ! मनुष्य के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का पूर्ण और संतुलित विकास करता है ! इसके अंतर्गत बच्चों में पाँचों मानवीय मूल्यों अर्थात सत्य , प्रेम , धर्म ,अहिंसा और शांति का विकास होता है !आज की शिक्षा बच्चों को कुशल विद्वान् एवं कुशल डॉक्टर , इंजीनियर या अफसर तो बना देती है परन्तु यह वः अच्छा चरित्रवान इंसान बने यह उसके संस्कारों पर निर्भर करता है ! एक पक्षी को ऊँची उड़ान भरने के लिए दो सशक्त पंखो की आवश्यकता होती है उसी प्रकार मनुष्य को भी जीवन के उच्च लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दोनों प्रकार की शिक्षा अपने बच्चों को अवश्य दें ! सांसारिक शिक्षा उसे जीविका और आध्यात्मिक शिक्षा उसके जीवन को मूल्यवान बनाएगी !

बच्चों को  श्री हरिवश राय बच्चन जी की कविता के अंश जरुर पढ़ने चाहिए

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

बच्चों की भी ध्यान रखना होगा की जिन्दगी बहुत कीमती है और वे जिस समाज में रहते हैं उसके प्रति उनकी भी नैतिक जिम्मेदारी हैं जिसका निर्वाहन करना उनका फ़र्ज़ है ! वे जिस समाज में रहते हैं , उसका सम्मान करें क्यूंकि उस समाज ने उनके लिए बहुत कुछ किया है और सामाजिक प्राणी होने के नाते आप अपनी जिम्मेदारी निभाए बिना कैसे इस दुनिया से चले जाना चाहते हैं ? सिर्फ इसलिए कि कि आप चुनौतियों से घबरा गए हैं ! खेद इस बात का नहीं होना चाहिए की आप असफल हुए हैं बल्कि आप की वजह से आपके माता पिता का समय ,धन व् सम्मान को ठेस पहुंची ! जीवन को चुनौती समझकर दृढ़ता से उस पर आने वाली चुनौती का डट कर सामना करें और अपनी गलतियों का अवलोकन कर इस द्रढ़ता से परीक्षा की तैयारी करें और कठिनाई के समय अपने शिक्षक ,अभिभावक को अपना मित्र समझ अपनी परेशानी उन्हें बताएं और स्वयं  पर हीनता के भाव कदापि न आने दें ! आत्मविश्वासी  बच्चे  उज्ज्वल भारत निर्माण  का संचार अब घर घर में हो !

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 नैतिक शिक्षा 
राष्ट्र   निर्माण  की  सच्ची  आधारशिला  यह  है  कि  नैतिक  व् धार्मिक वातावरण उत्पन्न किया जाये ! बाल्यकाल से ही घर , परिवार , विद्यालय  , कॉलेज  व् समाज में संस्कारों का प्रसार करना चाहिए ! व्यक्तिगत था समाजिक जीवन में सुसंस्कृत विचारधारा  एवं सुव्यवस्तिथ  कार्य प्रणाली  का होना आवश्यक है !यदि हमारी युवा पीढ़ी सिद्धांतों  के प्रति आस्थावान व् सजग नहीं है तो  समझ लेना चाहिए कि  उनमें  संस्कारों  की  दीक्षा  का आभाव  रहा है ! अच्छी  पुस्तकें सहानुभूति में मित्र  शिक्षण  में गुरु और सम्पूर्ण जीवन  में नेक  राह चलने की प्रेरणा देने वाले परमात्मा की तरह होती है ! जीवन में प्रत्येक  वस्तुओं पर सभी का ध्यान केन्द्रित रहता है किन्तु नैतिक ज्ञान को अनदेखा किया जाता है  जो चरित्र  निर्माता होती है ! सत्साहित्य से जो प्रेरणाएं मिलती है उसका प्रभाव  व्यक्ति के चिन्तन  व् चरित्र पर पड़ता है और उसकी प्रतिक्रिया   निश्चिंत  रूप  से  दृष्टीकोण  के परिष्कार एवं समुन्नत  जीवन  क्रम  के रूप  सामने आती है ! नैतिक शिक्षा को संजीवनी  विद्या  भी  कह  सकते हैं  जो खून को सदैव  दूषित अणो  से दूर  रखती  हैं !
आज के वर्तमान परिस्तिथि को देखते हुए , हमे  बच्चों  के  विकास  हेतु  प्रयत्नशील  बनना पडेगा ! संस्कार का मूल विद्यालय  वैसे तो घर ही है जिसमें अभिवावक  का महत्वपूर्ण योगदान होता है ! उसके पश्चात  विद्यालय  शिक्षा  में  नैतिक  मूल्यों  का पाठ्यक्रम  में शामिल होना अनिवार्य है ! किन्तु यह भी सत्य है कि  नैतिक शिक्षा  को चरणों  में बाँधकर  यदि बच्चे को सुस्कृत  बना लिया जाये तो आज की हिंसा की मनोवृति से कदाचित वह दूर रह पायेगा ! हम लोग  अक्सर बच्चों  की पढाई में संस्कारों को केवल  प्राथमिक  कक्षा तक  केन्द्रित  कर  देते हैं जबकि यह जीवनपर्यंत  प्राप्त होती रहनी चाहिए !  विशेषत: बच्चों  के मानसिक विकास यूँ तो 2-12 वर्ष में   बन जाता है ,किन्तु इस समय तक   वह स्वयं को  सामाजिक  परिवेश  की विभिन्न  कसौटियों  को परखने  में अक्षम रहता है ! इसीलिए मनोवैज्ञानिकों  का मानना है की नैतिक शिक्षा की मुख्य भूमिका 13 वर्ष से 19 वर्ष की आयु तक प्रभावी रूप से शिक्षण  संस्थाओं  द्वारा अनिवार्य किया जाना चाहिए ! सभी अभिभावकों व् शिक्षकों का मुख्य कार्य बच्चों के चेतन व् अवचेतन मन  का विकास होना चाहिए !
मनोवैज्ञानिकों  का मत है कि मन को अध्यात्म  से जोड़कर काफी हद तक संतुलित किया जा सकता है जो कि  मनुष्य को प्रत्येक क्षण उसके कार्यों के प्रति सजग रखता है ! यह बच्चों व् बड़ो की आदतों को नियंत्रित करता है! जिससे वे समय व् परिस्तिथि  के अनुसार कार्य व् निर्णय  लेने में सक्षम  रहते हैं !  अच्छे  चरित्रों  की उपलब्ध  कथाओं के माध्यम से व् प्रयोगात्मक शैली से बच्चों  के अंदर  नैतिक मूल्यों  का विकास  करना चाहिए !यही उसके चरित्र का निर्माता भी है ! 
आज का कट्टू  सत्य है की बच्चे दिन ब  दिन हिंसा ,झडप व्  बैचनी  से भरे माहौल में बड़े हो रहे हैं ! जिसमें  बेईमानी  की पराकाष्ठा बढ़ी है ! चरित्र  निर्माण  एक  जटिल प्रक्रिया है ! हम सभी मिलकर  विपरीत परिस्तिथियों   को बदलेंगे  और बदलकर ही रखेंगे ऐसा सभी को वचनबद्ध होना पड़ेगा !  उत्कृष्टता  और आदर्शवादिता  की किरणे  हर अंत :कर्ण तक पहुँचायेंगे ! इन नैतिक मूल्यों से बचपन  को  निखारते रहना होगा  जिससे उनके भविष्य को  मजबूत दिशा मिल सकेगी ! इन में प्रमुख हैं !1. . एक  दूसरे  के प्रति  प्रेम  व्  सहानुभूति  2 .ईमानदारी  3  मेहनत 4. एक दूसरों  के लिए आदर भाव ,5 आपसी सहयोग की प्रबल भावना 6.समरसता की भावना 7 .क्षमा  8  भेदभाव से अछूता संसार 10. एकता  की उन्नत भावना ! प्रत्येक बच्चे को  महान आदर्शों  के अनुरूप  ढालने  और सभी को प्रेरित करते रहना के प्रयास को मुख्य धारा से जोड़ना  मुख्य ध्येय  बने ! ज्ञानयज्ञ की चिंगारी भारत के कोने कोने पहुँचाने का बीड़ा उठाना होगा !
नैतिक शिक्षा प्राईमरी या माध्यमिक  तक ही सीमित रखा गया है ! 12 वर्ष तक माँ , 19 वर्ष तक पिता व् शिक्षक और उसके पश्चात  समाज का एक व्यक्ति के चरित्र निर्माण  का दायित्व होता है ! और यही विडंबना  है कि  विद्यालयों  में आठवी कक्षा के बाद नैतिक शिक्षा को निर्थक मान कर पाठ्यक्रम से हटा  लिया जाता है !किन्तु अक्सर पिता यह सोचकर की बच्चा बड़ा हो गया है और समाज इसलिए बेपरवाह रहता है कि  यह अभिभावक की जिम्मेदारी है ! हर व्यक्ति एक दूसरे  के कंधों पर अपने कर्तव्य  लाद  देते हैं और यहीं से आरम्भ होता है बच्चों का नैतिक पतन ! 13 वर्ष से 19 वर्ष की भावुक उम्र में वे परिवार व् समाज के नियन्त्रण से आज़ाद होकर  वे अपनी अलग  दुनिया  में मग्न हो जाते हैं ! और जब यही बच्चे भटक जातें हैं तब आरभ होता है एक दूसरे  पर आरोप प्रत्यारोपों  का अंतहीन सिलसिला ! इसीलिए सभी से अनुरोध की समय रहते ही सजग हो जाएँ नहीं तो आने वाला कल अनैतिक तत्वों से बढ़ जाएगा जिसमें आप हम सभी दोषी होंगे !

बुधवार, 2 जनवरी 2013

 जन जाग्रति अभियान   
अनैतिकता ,मूढ़मान्यता  और कुरीतियों  के कारण होने वाले भयंकर अनर्थों से अब भारत को बचाना होगा ! पिछले वर्ष की गतिविधियों का अवलोकन करने से नैतिक , बौद्धिक  और सामाजिक  क्षेत्रों में अनेक अनीतियाँ  देखने  में आयीं  जिनके विरुद्ध जनमत और आक्रोश भी फैला ! लोक चिंतन को उत्कृष्ट्ता की दिशा  में अग्रसर करने वाले चेतन साहित्य को बढ़ावा  देना होगा ! यह चिंतन हर वर्ग तक पहुंचाने से एकता व् समता के सिद्धांतों  को मान्यता मिल पायेगी ! 
चिंतन चरित्र निर्माता व् प्रेरणा स्त्रोत होता है जिसमें श्रधा  ,निष्ठा एवं अटूट विश्वास के भाव जागृत हो  ऐसे लोगों को एकजुट होकर इस दिशा में कार्यरत होना चाहिए ! यदि सिद्धांतो  के प्रति हम निष्ठावान नहीं हुए तो  भटकाव युही बना रहेगा ! हर जिम्मेदार व्यक्ति को अपने चिन्तन व् कर्मों से सदैव अपने को आस्थावान बनाकर रखना है !
नव युग चेतना का आधार आत्मीयता होना चाहिए ! जब भी किसी कार्य के प्रति संकल्प लेते हैं , तो भावनाओ  की रस्सी ढीली यदि रखेंगे तो मनुष्य के भटकने का खतरा और यदि  कसाव रखेंगे तो उलंघन का खतरा सदैव बना रहेगा ! इसीलिए प्यार ही वर्तमान परिस्तिथि में सामाजिक बंधन में मजबूती लाएगा ! अपने व्यक्तिगत यश की कामना में या गरीबी से जूझ रहे जीवन का अक्सर  सामाजिक भटकाव की ओर  ध्यान नहीं जाता ! वे यह सोचते हैं कि  यह कार्य सरकार का है ! उन्हें इन फालतू चीज़ों के लिए  समय ही कहाँ ! ऐसे लोग सामाजिक दायित्व के साथ विश्वासघात  करते हैं !
समय की परिपाटी में हम यह  नहीं समझ पाते कि सामाजिक  दायित्वों से मुह मोड़कर ,हम अपना पतन स्वत : ही कर रहे हैं , जिसके फलस्वरूप  न केवल आप अपितु आपकी जीवात्मा  आने वाले कल में आत्मग्लानि से पीड़ित रहेगी ! अब तक  समाज में जो कुछ हो रहा है , उसके प्रति सजग होने का समय आ गया है ! हमारे व्यक्तित्व का स्तर जितना ऊँचा  होगा ,उसी से पारिवारिक शक्ति और सामाजिक जागृति बढ़ेगी !
छोटे बच्चों  द्वारा शिष्टाचार  पालन में ढील  को हंसकर टाला  जा सकता है पर बड़े होकर मर्यादाओं का पालन अत्यंत  आवश्यक हो जाता है ! अब समय आ गया है कि बाल्यकाल  से ही आचरण  पर पैनी नजर रखनी होगी ! समाज में बिखरे  अनगिनत माणिक्यों को ढूंढकर ऐसे समूह का निर्माण करें ,जिसका कार्य जन जाग्रति अभियान से घर  घर के मोतियों को तराश कर समाज की सुंदर  माला  तैयार की जा सके ! घर के बच्चों में संस्कारों का आभाव या उनके आचरण में कमी दिखे तो उन्हें  समय रहते ही सुधार लिया जाए ! ताकि वे भी विचारशील लोगों की मधुर कड़ी में सम्मिलित हो जायें ! ऐसे व्यक्तियों के आभाव में ही तो आज समाज का कुरूप चेहरा सामने आ रहा है !
अध्यात्म व् नैतिक शिक्षा का प्रचार व् प्रसार अत्यंत जरूरी है ! सत्प्रवृतियों  की प्रतिष्ठापन  व् हर बच्चे का उत्साहवर्धन समाजिक दर्पण में स्पस्ट दिखना चाहिए ! जो लोग आत्मविश्वास के धनी और धैर्यवान होते हैं वे इन परिस्तिथियों पर आसानी से विजय प्राप्त  कर लेते हैं !
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